________________ 10 न्यायकुमुदचन्द्र जयति" लिखा रहता है तथा संवत् 250 पढ़ा गया है / यह संवत् संभवतः गुप्त-संवत् है। डॉ० . फ्लीट्के मतानुसार गुप्तसंवत् ई० सन् 320 की 26 फरवरी को प्रारम्भ होता है। अत: 570 ई० में अवन्तिवर्माका अपनी मुद्राको प्रचलित करना इतिहाससिद्ध है। इस समय अवन्तिवर्मा राज्य कर रहे . होंगे। तथा 570 ई० के आसपास ही वे पुरन्दरगुरुको अपने राज्यमें लाए होंगे। ये अवन्तिवर्मा मौखरीवंशीय राजा थे। शैव होने के कारण शिवोपासक पुरन्दरगुरुको अपने यहाँ लाना भी इनका ठीक ही था। इनके समयके सम्बन्धमें दूसरा प्रमाण यह है कि-वैसवंशीय राजा हर्षवर्द्धनकी छोटी बहिन राज्यश्री अवन्तिवर्माके पुत्र ग्रहवर्माको विवाही गई थी। हर्षका जन्म ई० 590 में हुआ था। राज्यश्री उससे 1 या 2 वर्ष छोटी थी। ग्रहवर्मा हर्षसे 5-6 वर्ष बड़ा जरूर होगा। अतः उसका जन्म 584 ई० के करीब मानना चाहिए। इसका राज्यकाल ई०६०० से 606 तक रहा है। अवन्तिवर्माका यह इकलौता लड़का था। अतः मालूम होता है कि ई० 584 में अर्थात् अवन्तिवर्माकी ढलती अवस्थामे यह पैदा हया होगा। प्रस्तु, यहाँ तो इतना ही प्रयोजन हैं कि 570 ई० के आसपास ही अवन्तिवर्मा पुरन्दरको अपने यहाँ ले गए थे। यद्यपि सन्यासियोंकी शिष्य-परम्पराके लिए प्रत्येक पीढीका समय 25 वर्ष मानना आवश्यक नहीं है। क्योंकि कभी कभी 20 वर्षमें ही शिष्य-प्रशिष्यों की परम्परा चल जाती है। फिर भी यदि प्रत्येक पीढीका समय 25 वर्ष ही मान लिया जाय तो पुरन्दरसे तीन पीढी के बाद हुए व्योमशिवका समय सन् 670 के आसपास सिद्ध होता है। दार्शनिकग्रन्थोंके आधारसे समय-व्योमशिव स्वयं ही अपनी व्योमवती टीका (पृ० 392) में श्रीहर्षका एक महत्त्वपूर्ण ढंगसे उल्लेख करते हैं / यथा "अत एव मदीयं शरीरमित्यादिप्रत्ययेष्वात्मानुरागसद्भावेऽपि आत्मनोऽवच्छेदकत्वम् / श्रहर्ष देवकुलमिति ज्ञाने श्रीहर्षस्येव उभयत्रापि बाधकसद्भावात्, यत्र ह्यनुरागसद्भावेऽपि विशेषणत्वे बाधकमस्ति तत्रावच्छेदकत्वमेव कल्प्यते इति / अस्ति च श्रीहर्षस्य विद्यमानत्वम् / आत्मनि कर्तृत्वकरणत्वयोरसम्भव इति बाधकम् / " यद्यपि इस सन्दर्भका पाठ कुछ छूटा हुआ मालूम होता है फिर भी 'अस्ति च श्रीहर्षस्य विद्यमानत्वम्' यह वाक्य खास तौरसे ध्यान देने योग्य है। इससे साफ मालूम होता है कि श्रीहर्ष (606-647 A.D. राज्य) व्योमशिवके समयमें विद्यमान थे। यद्यपि यहां यह कहा जा सकता है कि व्योमशिव श्रीहर्षके बहत बाद होकर भी ऐसा उल्लेख कर सकते हैं, परन्तु जब शिलालेखसे उनका समय ई० सन् 670 के आसपास है तथा श्रीहर्षकी विद्यमानताका वे इस तरह जोर देकर उल्लेख करते हैं तब उक्त कल्पनाको स्थान ही नहीं मिलता। व्योमवतीका अन्तः रीक्षण-व्योमवती ( पृ० 306,307,680 ) में धर्मकीतिके प्रमाणवार्तिक (2-11,12 तथा 1-68,72) से कारिकाएँ उद्धृत की गई है। इसी तरह व्योमवती (प० 617) में धर्मकीत्तिके हेतबिन्दु प्रथमपरिच्छेदके "डिण्डिकरागं परित्यज्य अक्षिणी निमील्य" इस वाक्यका प्रयोग पाया जाता है। इसके अतिरिक्त प्रमाणवातिककी और भी बहुतसी कारिकाएँ उद्धृत देखी जाती हैं। व्योमवती (पृ० 591,592) में कुमारिलके मीमांसा-श्लोकवातिककी अनेक कारिकाएँ उद्धृत हैं। व्योमवती (पृ० 129) में उद्योतकरका नाम लिया है, भर्तृहरिके शब्दाद्वैतदर्शनका (पृ० 20 च) खण्डन किया है और प्रभाकरके स्मृतिप्रमोषवादका भी (10 540) खंडन किया गया है। इनमें भर्तृहरि, धर्मकीत्ति, कुमारिल तथा प्रभाकर ये सब प्रायः समसामयिक और ईसाकी सातवीं शताब्दीके विद्वान् हैं / उद्योतकर छठी शताब्दीके विद्वान् हैं। अतः व्योमशिवके द्वारा इन समसामयिक एवं किंचित्पूर्ववर्ती विद्वानोंका उल्लेख तथा समालोचनका होना संगत ही है। व्योमवती (पृ० 15) में बाणकी कादम्बरीका उल्लेख है। बाण हर्षकी सभाके विद्वान् थे, अतः इसका उल्लेख भी होना ठीक ही हैं। * देखो, भारतके प्राचीन राजवंश, द्वि० भाग पृ० 375 / +देखो, भारतके प्राचीन राजवंश, द्वितीय भाग पु० 229 /