________________ प्रस्तावना राजशेखरने प्रशस्तपादभाष्यको 'कन्दली' टीकाकी 'पंजिका' में प्रशस्तपादभाष्यकी चार टीकाओंका इस क्रमसे निर्देश किया है-सर्वप्रथम 'व्योमवती' (व्योमशिवाचार्य), तत्पश्चात् 'न्यायकन्दली' (श्रीधर), तदनन्तर 'किरणावली (उदयन) और उसके बाद 'लीलावती' (श्रीवत्साचार्य)। ऐतिह्यपर्या. लोचनासे भी राजशेखरका यह निर्देशक्रम संगत जान पड़ता है। यहाँ हम व्योमवतीके रचयिता व्योमशिवाचार्यके विषयमें कुछ विचार प्रस्तुत करते हैं। व्योमशिवाचार्य शैव थे। अपनी गुरु-परम्परा तथा व्यक्तित्वके विषयमें स्वयं उन्होंने कुछ भी नहीं लिखा / पर रणिपद्रपुर रानोद, वर्तमान नारोदग्राम की एक वापी-प्रशस्ति * से इनकी गुरुपरम्परा तथा व्यक्तित्व-विषयक बहुतसी बातें मालूम होती हैं, जिनका कुछ सार इस प्रकार है ___ "कदम्बगहाधिवासी मुनीन्द्र के शंखमठिकाधिपति नामक शिष्य थे, उनके तेरम्बिपाल, तेरम्बिपालके आमर्दकतीर्थनाथ और आमर्दकतीर्थनाथके पुरन्दरगुरु नामके अतिशय प्रतिभाशाली तार्किक शिष्य हुए। पुरन्दरगुरुने कोई ग्रन्थ अवश्य लिखा है; क्योंकि उसी प्रशस्ति-शिलालेखमें अत्यन्त स्पष्टतासे यह उल्लेख है कि-"इनके वचनोंका खण्डन आज भी बड़े बड़े नैयायिक नहीं कर सकते।"+ स्याद्वादरत्नाकर आदि ग्रन्थोंमें पुरन्दरके नामसे कुछ वाक्य उद्धृत मिलते हैं, सम्भव है वे पुरन्दर ये ही हों। इन पुरन्दरगुरुको अवन्तिवर्मा उपेन्द्रपुरसे अपने देशको ले गया। अवन्तिवर्माने इन्हें अपना राज्यभार सौंप कर शैवदीक्षा धारण की और इस तरह अपना जन्म सफल किया। पुरन्दरगुरुने मत्तमयूरमें एक बड़ा मठ स्थापित किया। दूसरा मठ रणिपद्रपुरमें भी इन्हींने स्थापित किया था। पुरन्दरगुरुका कवचशिव और कवशिवका सदाशिव नामक शिष्य हुआ, जो कि रणिपद्रपुरके तापसाश्रम में तपःसाधन करता था। सदाशिवका शिष्य हृदयेश और हृदयेशका शिष्य व्योमशिव हआ, जोकि अच्छा प्रभावशाली, उत्कट प्रतिभासम्पन्न और समर्थ विद्वान था।" व्योमशिवाचार्य के प्रभावशाली होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि इनके नामसे ही व्योममन्त्र प्रचलित हए थे। 'ये सदनुष्ठानपरायण, मृदु-मितभाषी, विनय-नय-संयमके अद्भुत स्थान तथा अप्रतिम प्रतापशाली थे / इन्होंने रणिपद्रपुरका तथा रणिपद्रमठका उद्धार एवं सुधार किया था और वहीं एक शिवमन्दिर तथा वापीका भी निर्माण कराया था। इसी वापीपर उक्त प्रशस्ति खुदी है। इनकी विद्वत्ताके विषयमें शिलालेखके ये श्लोक पर्याप्त हैं"सिद्धान्तेषु महेश एष नियतो न्यायेऽक्षपादो मुनिः / गम्भीरे च कणाशिनस्तु कणभुक्शास्त्रे श्रुतौ जैमिनिः / सांख्येऽनल्पमतिः स्वयं स कपिलो लोकायते सद्गुरुः / बुद्धो बुद्धमते जिनोक्तिषु जिनः को वाथ नायं कृती॥ यद्भूतं यदनागतं यदधुना किंचित्क्वचिद्वर्ध (त) ते / सम्यग्दर्शनसम्पदा तदखिलं पश्यन् प्रमेयं महत् // सर्वज्ञः स्फटमेष कोपि भगवानन्यः क्षितौ सं (शंकरः / धत्ते किन्तु न शान्तधीविषमदग्रौद्रं वपुः केवलम् // " इन श्लोकोंमे बतलाया है कि 'व्योमशिवाचार्य शवसिद्धान्तमें स्वयं शिव, न्यायमें अक्षपाद, वैशेषिक शास्त्रमें कणाद, मीमांसामे जैमिनि, सांख्यमें कपिल, चार्वाकशास्त्रमें बृहस्पति, बुद्ध मतमे बुद्ध तथा जिनमतमे स्वयं जिनके समान थे। अधिक क्या; अतीतानागतवर्तमानवर्ती यावत् प्रमेयोंकी अपनी सम्यग्दर्शनसम्पत्तिसे स्पष्ट देखने जानने वाले सर्वज्ञ थे। और ऐसा मालम होता था कि मात्र विषमनेत्र (तृतीयनेत्र) तथा रौद्रशरीर को धारण किए बिना वे पृथ्वी पर दूसरे शंकर भगवान् ही अवतरे थे। इनके गगनेश, व्योमशम्भु, व्योमेश, गगनशशिमौलि आदि भी नाम थे। शिलालेखके आधारसे समय-व्योमशिवके पूर्ववर्ती चतुर्थगुरु पुरन्दरको अवन्तिवर्मा राजा अपने नगरमे ले गया था। अवन्तिवर्माके चाँदीके सिक्कों पर "विजितावनिरवनिपतिः श्री अवन्तिवर्मा दिवं * प्राचीन लेखमाला द्वि० भाग, शिलालेख नं० 108 / + यस्याधुनापि विबुधैरितिकृत्यशंसि व्याहन्यते न वचनं नयमार्गविद्भिः // " + “अस्य व्योमपदादिमन्त्ररचनाख्याताभिधानस्य च।"-वापीप्रशस्तिः