Book Title: Nyayakumudchandra Part 2
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 20
________________ 18 न्यायकुमुदचन्द्र उल्लेखोंके आधार पर यह निःशंक रूपसे बतलाया है कि स्वामी समन्तभद्र पूज्यपादके आप्त- . स्तोत्रके मीमांसाकार हैं अत एव उनके उत्तरवर्ती ही हैं। मेरा यह विचार तो बहुत दिनोंके पहिले स्थिर हुआ था, पर प्रंसग आनेपर उसे संक्षेपमें अकलंकग्रन्थत्रयके प्राक्कथनमें निविष्ट किया था / पं० महेन्द्रकुमारजीने मेरे संक्षिप्त लेखका विशद और सबल भाष्य करके प्रस्तुत भागकी प्रस्तावना (पृ० 25) में यह अभ्रान्तरूपसे स्थिर किया है कि स्वामी समन्तभद्र पूज्यपादके उत्तरवर्ती हैं / अलबत्ता उन्होंने मेरी सप्तभंगीवाली दलीलको निर्णायक न मानकर विचारणीय कहा है / पर इस विषयमें पंडितजी तथा अन्य सज्जनोंसे मेरा इतना ही कहना है कि मेरी वह दलील विद्यानन्दके स्पष्ट उल्लेखके आधार पर किए गए निर्णयकी पोषक है / और उसे मैने वहाँ स्वतन्त्र प्रमाणरूपसे पेश नहीं किया है / यद्यपि मेरे मनमें तो वह दलील एक स्वतन्त्र प्रमाणरूपसे भी रही है। पर मैंने उसका उपयोग उस तरहसे वहाँ नहीं किया / जो जैन परम्परामें संस्कृत भाषाके प्रवेश, तर्कशास्त्रके अध्ययन और पूर्ववर्ती आचार्योंकी छोटीसी भी महत्वपूर्ण कृतिका उत्तरवर्ती आचार्यों के द्वारा उपयोग किया जाना इत्यादि जैन मानसको जानता है उसे तो कभी संदेह हो ही नहीं सकता कि पूज्यपाद, दिग्नागके पद्यको तो निर्दिष्ट करें पर अपने पूर्ववर्ती या समकालीन समन्तभद्रकी असाधारण कृतियोंका किसी अंशमें स्पर्श भी न करें / क्या वजह है कि उमास्वातीके भाष्यकी तरह सर्वार्थसिद्धि में भी सप्तभंगीका विशद निरूपण न हो ? जो कि समन्तभद्रकी जैनपरंपराको उस समयकी नई देन रही। अस्तु / इसके सिवाय मैं और भी कुछ बातें विचारार्थ उपस्थित करता हूँ जो मुझे स्वामी समन्तभद्रको धर्मकीर्तिके समकालीन माननेकी ओर झुकाती हैं मुद्देकी बात यह है कि अभी तक ऐसा कोई जैन आचार्य या उनका ग्रन्थ नहीं देखा गया जिसका अनुकरण ब्राह्मणों या बौद्धोंने किया हो। इसके विपरीत 1300 वर्षका तो जैन संस्कृत एवं तर्कवाङ्मयका ऐसा इतिहास है जिसमें ब्राह्मण एवं बौद्ध परम्पराकी कृतिओंका प्रतिबिम्ब ही नहीं, कभी कभी तो अक्षरशः अनुकरण है / ऐसी सामान्य व्याप्ति बाँधनेके जो कारण हैं उनकी चर्चा यहाँ अप्रस्तुत है। पर अगर यह सामान्यव्याप्तिकी धारणा भ्रान्त नहीं हैं तो धर्मकीर्ति तथा समन्तभद्रके बीच जो कुछ महत्त्वका साम्य है उस पर ऐतिहासिकोंको विचार करना ही पड़ेगा। न्यायावतारमें धर्मकीति के द्वारा प्रयुक्त एक मात्र अभ्रान्त पदके बलपर सूक्ष्मदर्शी प्रो० याकोबीने सिद्धसेन दिवाकरके समयके बारेमें सूचन किया था, उस पर विचार करनेवाले हम लोगों को समन्तभद्रकी कृतिमें पाये जाने वाले धर्मकीर्तिके साम्य पर भी विचार करना ही होगा। पहली बात तो यह है कि दिग्नागके प्रमाणसमुच्चयगत मंगल श्लोकके उपर ही उसके व्याख्यानरूपसे धर्मकीर्तिने प्रमाणवार्तिक का प्रथम परिच्छेद रचा है। जिसमें धर्मकीर्तिमे प्रमाणरूपसे सुगतको ही स्थापित किया है। ठीक उसी तरह से समन्तभद्रने भी पूज्यपादके 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' वाले मंगल पद्यको लेकर उसके ऊपर आप्तमीमांसा रची है और उसके द्वारा जैन तीर्थंकरको ही आप्त-प्रमाण स्थापित किया है / असल बात यह है कि कुमारिलने श्लोकवार्तिकमें चोदना-वेद कोही अंतिम प्रमाण स्थापित किया, और 'प्रमाणभूताय जगद्धितैषिणे'

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