Book Title: Nyayakumudchandra Part 2
Author(s): Mahendramuni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ न्यायकुमुदचन्द्र हम सांप्रदायिक चिन्तकोंका यह झुकाव रोज देखते हैं कि वे अपने चिन्तनमें तो . कितनी ही कमी या अपनी दलीलोंमें कितनाही लचरपन क्यों न हो उसे प्रायः देख नहीं पाते / और दूसरे विरोधी संप्रदायके तत्त्वचिन्तनोंमें कितना ही साद्गुण्य और वैशथ क्यों न हो उसे . स्वीकार करनेमें भी हिचकिचाते हैं। सांप्रदायिक तत्त्वचिन्तकोंका यह भी मानस देखा जाता है कि वे संप्रदायान्तरके प्रमेयोंको या विशेष चिन्तनोंको अपनाकर भी मुक्तकण्ठसे उसके प्रति कृतज्ञता दर्शानेमें हमेशा हिचकिचाते हैं। दर्शन जब साक्षात्कारकी भूमिकाको लाँधकर विश्वासकी भूमिका पर आया और उसमें कल्पनाओं तथा सत्यासत्य तकोंका भी समावेश किया जाने लगा, तब दर्शन सांप्रदायिक संकुचित दृष्टियोंमें श्रावृत होकर, मूलमें शुद्ध प्राध्यास्मिक होते हुए भी अनेक दोषोंका पुञ्ज भी बन गया। अब तो यह पृथक्करण करना ही कठिन हो गया है कि दार्शनिक चिन्तनोंमें क्या कल्पनामात्र है, क्या सत्य तर्क है, या क्या असत्य तर्क है ? हर एक संप्रदायका अनुयायी चाहे बह अपढ़ हो, या पढ़ा लिखा, विद्यार्थी एवं पंडित, यह मानकर ही अपने तत्वचिंतक ग्रन्थोंको सुनता है या पढ़ता पढ़ाता है, कि इस हमारे तत्त्वग्रन्थमें जो कुछ लिखा गया है वह अक्षरशः सत्य है, इसमें भ्रान्ति या संदेहको अवकाश ही नहीं है / तथा इसमें जो कुछ है वह दूसरे किसी संप्रदायके ग्रन्थमें नहीं है / और अगर है तो भी वह हमारे संप्रदायसे ही उसमें गया है। इस प्रकारकी प्रत्येक संप्रदायकी अपूर्णमें पूर्ण मान लेनेकी प्रवृत्ति इतनी अधिक बलवती है कि अगर इसका कुछ इलाज न हुआ तो मनुष्यजातिका उपकार करनेके लिए प्रवृत्त हुआ यह दर्शन मनुष्यताका ही घातक सिद्ध होगा। ____ मैं समझता हूँ कि उक्त दोषको दूर करनेके अनेक उपायोंमें से एक उपाय यह भी है कि जहाँ दार्शनिक प्रमेयोंका अध्ययन तात्त्विकदृष्टिसे किया जाय वहाँ साथ ही साथ वह अध्ययन ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक दृष्टिसे भी किया जाय / जब हम किसी भी एक दर्शनके प्रमेयोंका अध्ययन ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक दृष्टिसे करते हैं तब हमें अनेक दूसरे दर्शनोंके प्रमेयों के बारेमें भी जानकारी प्राप्त करनी पड़ती है / वह जानकरी अधूरी या विपर्यस्त नहीं / पूरी और यथासंभव यथार्थ जानकारी होते ही हमारा मानस व्यापक ज्ञानके आलोकसे भर जाता है / ज्ञानकी विशालता और स्पष्टता हमारी दृष्टिमेंसे संकुचितता तथा तजन्य भय आदि दोषोंको उसी तरह हटाती है जिस तरह प्रकाश तम को। हम असर्वज्ञ और अपूर्ण हैं, फिर भी अधिकसे अधिक सत्यके निकट पहुँचना चाहते हैं। अगर हम योगी नहीं हैं फिर भी अधिकाधिक सत्य या तत्त्वदर्शनके अधिकारी बनना चाहते हैं तो हमारे वास्ते साधारण मार्ग यही है कि हम किसी भी दर्शनको यथा संभव सर्वांगीण ऐतिहासिक तथा तुलनात्मक दृष्टि से भी पढ़ें। न्यायकुमुदचन्द्रके संपादक पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने मूल ग्रन्थके नीचे एक एक छोटे बड़े मुद्देपर जो बहुश्रुतत्वपूर्ण टिप्पण दिये हैं और प्रस्तावनामें जो अनेक संप्रदायोंके प्राचार्योंके ज्ञानमें एक दूसरेसे लेनदेनका ऐतिहासिक पर्यालोचन किया है, उन सबकी सार्थकता उपर्युक्त दृष्टिसे अध्ययन करने करानेमें ही है / सारे न्यायकुमुदचन्द्र के टिप्पण तथा प्रस्तावनाका

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 ... 634