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छ आमुख
श्री जैनशासन में आचार्य भगवंतों ने तत्त्व को यथार्थ रूप से समझने के दो उपाय दिखाये है । प्रमाण और नय । तत्त्वार्थसूत्र में वाचक श्री उमास्वातिजी भगवंतने नयो को प्रमाण के समकक्ष स्थान दिया है ।' प्रमाण की तरह नय भी तत्त्वार्थ के अधिगम के उपाय है । दर्शनशास्त्र में परीक्षा के लिये 'प्रमाण' को अत्यंत आवश्यक माना गया है । प्रमाण जहाँ वस्तुतत्त्व की परीक्षा में उपयोगी है वहीं नय वस्तुतत्त्व के सूक्ष्मसूक्ष्मतम स्वरूपको समझने में सहायक बनते है । __प्रत्येक वस्तु स्वभाव से ही अनन्तधर्मात्मक है । वस्तुतत्त्व के अनन्त धर्मो का एक साथ ज्ञान करना छद्मस्थ की सीमित ज्ञान शक्ति से परे है । छद्मस्थ ज्ञाता का प्रत्येक बोध एवं प्रत्येक वचन नय की सहायता से ही बोधजनक होता है । इसीलिये कहा गया है कि - 'जितने नयवाद है उतने ही वचनपथ है'३ । अतएव वस्तुतत्त्व के विभिन्न पहलुओं से यथातथ अवगत होने के लिये नयज्ञान अतीव
आवश्यक है । .: अनन्तधर्मात्मक वस्तुतत्त्व के किसी एक धर्म का प्राधान्येन अभिप्राय
रखनेवाली दृष्टि 'नय' कहलाती है । सामान्यत: नय के सात प्रकार है । ... नैगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय, ऋजुसूत्रनय, शब्दनय,
समभिरूढनय, एवंभूतनय. १. प्रमाणनयैरधिगमः ।। १ ।। . २. कः पुनरयं न्यायः ? प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः ।। (न्यायसूत्रभाष्यम्) ३. जावइया नयवाया तावइया वयणपहा मुणेयव्वा ।
जावइया वयणपहा तावइया चेव परसमया ।। (सन्मति प्रक०)