Book Title: Navkar Mahamantra
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati

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Page 14
________________ मूल लेखक की प्रस्तावना विश्व के समग्र संचालन के पीछे निहित अंतिम उद्देश्य को विश्लेषित-पृथक् करने का और सूक्ष्म रूप से अद्भुत एवं रहस्यपूर्ण ऐसे प्राकृतिक प्रत्यक्ष वास्तविक तथ्यों को परिश्रम पूर्वक देखने का-उसके-गुप्त रहस्यों को देख-खोज कर उद्घाटित करने का - यदि कोई बुद्धिमान चिंतक प्रयत्न करता है, तो उसे पूर्ण हृदय से स्वीकार करना पड़ेगा कि प्रकृतिकुदरत-के प्रत्येक कार्य का विधान विश्व के जीवित प्राणीओं को लाभ पहुंचाने, उनकी रक्षा करने, उनका निर्वाह करने और उनको इस विश्व में ऊँचा उठाने और पार के दूसरे विश्व में ऊर्वीकृत करने का है। सूर्य, चन्द्र, सितारे, पर्वत, पृथ्वी, सागर, सरिताएँ, जंगल, अग्नि, वायु, जल सारे प्रकृति तत्त्व इसी उच्च उद्देश्य को चरितार्थ करने का कार्य कर रहे हैं, जो कि दिवस के प्रकाश की भाँति निर्विवाद तथ्य हैं। यदि हम आगे चलें और विश्व के गहन तल में डूबें और नापें-जाँचें, तो यह दिखाई देगा कि विश्व के सारे सचेतन और अचेतन पदार्थों को उनके भीतर सदासर्वदा रही हुई उनकी मूलभूत लाक्षणिक विशिष्टताओं पर उन्हें स्थिर बने रहना, चिपके रहना चाहिए। एक उदाहरण के तौर पर जल की नैसर्गिक लाक्षणिकताएँ हैं सदा शीतलता, प्रवाहिता और पारदर्शिता। जब जल कीचड़, अग्नि अथवा हवा के साथ सड़ा-गला बन जाता है तब वह दुर्गंधपूर्ण, गरम, गंदा और चिकना भी बन उठता है। परंतु जैसे ही जल को उपर्युक्त पदार्थों के संपर्क से दूर किया जाता है कि प्रकृति अपने आप ही उसके विजातीय द्रव्याणुओं को निकाल देती है और वह अपनी मूलभूत लाक्षणिकताएँ अपना लेता है, प्राप्त कर लेता है - धीरे से और शीघ्रता से भी और उत्क्रांति के वैज्ञानिक उपक्रम को जोड़ने की सहायता के द्वारा भी प्रकृति क्रमश: दूषित जल को उसकी मूलभूत लाक्षणिकताओं में परिवर्तित कर देगी। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक चैतन्य विज्ञान अथवा योग के शास्त्रीय आधार के अनुसार, आत्मा को मूलभूत सत्ता के रूप में कुछ मौलिक लाक्षणिकताओं से सजाया गया है जैसे कि ज्ञानबोधलाभ, शांति, समाधि, शाश्वती दशा इत्यादि, जो कि उसकी सुखप्राप्ति के पीछे दौड़ने की और दर्शन एवं ज्ञान की खोज की और अन्यों पर आज्ञा चलाने की उसकी मनोवैज्ञानिक विरासत में पाई गई वृत्तियों से पहचाना जा सकता है। अन्यों पर आज्ञा या अधिकार जमाने की, स्वसत्ता स्थापित करने की आत्मा की वृत्ति की तुलना, नेतृत्व पाने की और रोग, आपदा, मृत्यु जैसी अप्रिय अनीष्ट घटनाओं को अपने से अलग रखने की चेष्टा से की जा सकती है क्योंकि वह (आत्मा) स्वभावत: प्राकृतिक रूप से शाश्वत, सर्वज्ञतापूर्ण, सर्वोच्च एवं आनन्दमय है। प्रकृति किसी भी सचेत और अचेत तत्त्व की मूलभूत लाक्षणिकता का हनन, परिवर्तन, अवरोधन, रूकावट आदि न हो इसलिये अत्यंत ही सावधान और जागृत रहती है, परंतु अपनी अज्ञानता के कारण आत्मा भौतिक अथवा विजातीय आक्रमण से उन सारी GEORGE 4 SONGSOORam

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