Book Title: Navkar Mahamantra
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Jina Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो अरिहंताणं णमोसिद्धाणं णमोआयरियाण णमो उकामायाणं णमो लोए सत्व साहणं एसो पंच णमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं, पढ़मं हवइ मंगलं श्री नवकार महामंत्र || लेखक ।। स्वामी श्री ऋषभदासजी 'सिद्धपुत्र । प्रकाशक || श्री वर्धमान भारती प्रकाशन बैंगलोर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन साधारण में धर्म मार्ग पथ प्रदर्शक "नवकार का जप", "आयंबिल का तप", "ब्रह्मचर्य का खप" ANOOXOXOXOXONALIMALAYALAAAALK THORITTTTTTTTTOTO DAYALAYALUMIATATIOLELAMILIATAXIAORDIXILIOUUUDOOOOOORDARATALO जन्म सन् १९०३ सिद्धपुत्र स्वामीजी श्री ऋषभदासजी देवलोक समाधि स्थल : श्री केशरवाड़ी तीर्थ, पुड़ल, चेन्नई केशरवाड़ी सन् १९७४ शिवगंज Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RoccoCinaran The Universal Welfare Incantation का हिन्दी रूपान्तरण श्री नवकार महामंत्र विश्व कल्याण का घोषगान लेखक स्वामी श्री ऋषभदासजी 'सिद्धपुत्र' (आर.बी. प्राग्वट, मद्रास) - अनुवादक - सम्पादक। प्रा. प्रतापकुमार ज. टोलिया, बेंगलोर एम.ए. (हिन्दी), एम.ए. (अंग्रेजी), जैन संगीत रत्न "सप्तभाषी आत्मसिद्धि' इ. के सम्पादक-प्रकाशक 'आत्मसिद्धि', भक्तामर, महावीर दर्शन आदि सैकडों रिकार्डों के गायक, निर्देशक, प्रस्तुतकर्ता - अर्थ सहयोग। श्री जिनदत्तसूरि जैन मंडल, चेन्नई श्री धर्मनाथ मंदिर के ज्ञान खाता में से सौजन्य : युनियन ऑफ युनिवर्सल वेल्फेर, आदीश्वर भवन, पोलाल, रेडहिल्स, मद्रास - प्रकाशक जिन भारती श्री वर्धमान भारती इन्टरनेशनल फाउन्डेशन प्रभात काम्पलेक्स, के.जी. रोड, बेंगलोर - 560 009. फोन : 080-26667882 मो : 9611231580 Email : pratapkumartoliya@gmail.com SCORGETi 9890909090 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Macacociosanno अर्थ सहयोगी श्री जिनदत्तसूरि जैन मंडल. चेन्नई प्राप्ति स्थान श्री जिनदत्तसूरि जैन मंडल 85, अम्मन कोईल स्ट्रीट, चेन्नई - 600 001. दादावाडी श्री जिनकुशल सूरि श्री जिनचंद्रसूरि दादावाड़ी ट्रस्ट 370, कुन्नूर हाई रोड, आयनावरम, चेन्नई. श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर तीर्थ (केशरवाड़ी) पोलाल, चेन्नई श्री जिनदत्तसूरि जैन दादावाड़ी केशरवाड़ी, पोलाल, चेन्नई श्री वर्धमान भारती इन्टरनेशनल फाउण्डेशन प्रभात काम्पलेक्स, के.जी. रोड़, बेंगलोर - 560009. संस्करण - प्रथम प्रतियाँ - 1000 लागत मूल्य रू : 38/- देय मूल्य - सदुपयोग मुद्रक नवकार प्रिन्टर्स 9, त्रिवेलियन बेसिन स्ट्रीट, साहुकारपेट, चेन्नई - 79. मो. 98400 98686 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOGGED À SO500000sa समर्पण प.पू. प्रज्ञापुरूष, सिद्धपुत्र स्वामीजी श्री ऋषभदासजी के चरणों में समर्पण के दो शब्द .... अद्भुत व्यक्तित्व के धनी, प्रज्ञापुरुष, सिद्धपुत्र स्वामी श्री ऋषभदासजजी जिन्होंने हमारे श्री जिनदत्तसूरि जैन मंडल एवं अनेकों भव्य आत्माओं को जैन जगत् के अनमोल मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए प्रशस्त किया। हमारे मंडल को तत्वज्ञान, जीवविचार व रत्नत्रय की सुन्दर आराधना करते हुए जीवन में आगे बढ़ने का सदुपदेश दिया। जिन्होंने केशरवाड़ी तीर्थ के जीर्णोद्धार का प्रथम बीज बोया जो आज वट वृक्ष की तरह फैल रहा है। आज स्वामीजी के बोये हुए पुण्यदायी बीजों का फल ही यह श्री जिनदत्तसूरि जैन मंडल है। इस साहित्य प्रकाशन के अनमोल अवसर पर यह छोटा सा पुष्प स्वामीजी के श्री चरणों समर्पित करते है। अर्थ सहयोग परम पूज्य प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्रीजी महाराज द्वारा संस्थापित श्री जिनदत्तसूरि जैन मंडल के श्री धर्मनाथ मंदिर, चेन्नई के ज्ञान खाता के द्रव्य में से श्री धर्मनाथ जैन मंदिर के संपूर्ण जीर्णोद्धार एवं नूतन जिन बिम्बों की अंजनशलाका प्रतिष्ठा के निमित्त । see iii * JASOJOJ. 000 cecece Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Recentered00090908 जिनशासन रत्न स्वामी ऋषभदासजी संक्षिप्त परिचय : स्वामी ऋषभदासजी उस पुण्य पुरुष का नाम है, जिन्होंने ४० वर्षों से भी ज्यादा समय तक जिन शासन के विविध अंगो की सेवा की। वे सिर्फ एक व्यक्ति ही नहीं थे, पर चलतीफिरती संस्था थे। मद्रास (चेन्नई) उनकी कर्म स्थली थी। वे एक सफल वक्ता, लेखक, साधक, भक्त, समाज सुधारक, चिन्तक, जीवदया प्रेमी, परोपकारी और समन्वयवादी थे। उनके नाम व काम की सुगन्ध दूर-दूर तक देश के कोने-कोने में फैल गई। इस महापुरुष को सब लोग 'स्वामीजी' के सम्मानसूचक नाम से बुलाते थे। उनका जन्म राजस्थान के सिरोही जिले के शिवगंज नामक शहर में अनुमानत: वि. सं. १९६० सन् १९०३ में हुआ था। इस तेजस्वी आत्मा का जन्म प्राग्वट (पोरवाल) जाति के लांब गौत्र चौहान वंश में शाह भबुतमलजी के पुत्र रत्न के रूप में हुआ। बालक का नाम रिखबदास रखा गया। वे यथा नाम तथा गुण के अनुसार श्री ऋषभदेव प्रभु के सच्चे दास बन गए। युवावस्था प्राप्त होने पर उनका लग्न श्रीमती रंबाबाई के साथ हुआ। उनके एक पुत्री हुई। उसका नाम शांतिबाई रखा गया। उन्होंने ३० वर्ष की उम्र में श्री बामणवाडजी महातीर्थ में आयोजित अखिल भारतीय पोरवाल महा सम्मेलन में सक्रिय भाग लिया था। उनको जैन धर्म के तत्वज्ञान, साहित्य व इतिहास का अच्छा ज्ञान था। उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व हर किसी को अपनी तरफ आकर्षित करता था। उन्होंने पूरा जीवन जिन शासन की सेवा में अर्पित कर दिया था। उन्होंने श्री केशरवाड़ी (पुडल) तीर्थ का पूर्ण विकास श्री संघ के सहयोग से किया। उसकी उन्नति में उनका प्रशंसनीय व अनुमोदनीय योगदान रहा। पत्नी के देहान्त के बाद निवृत्ति व प्रवृत्तिमय जीवन बहुत वर्षों तक इसी तीर्थ पर बिताया था। उनका समाधि मरण ७१ वर्ष की उम्र में इस तीर्थ स्थान में दिनांक २१.६.१९७४ के दिन प्रात: ४.३० बजे हुआ था। संत समागमः युवावस्था में आप योगीराज श्री शांतिसूरिजी के समागम में आए। आबूजी में उनका कुछ समय गुरुदेव की सेवा और जप साधना में बीता। जैन धर्म व अहिन्सा के प्रचार व प्रसार की भावना ने वहाँ साकार रूप लिया। श्री बामणवाडजी तीर्थ पर आचार्य श्री वल्लभसूरिजी के RECERecenew SeelORSEEN Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRORSCOR SO90909090 साधर्मिक उत्कर्ष, शिक्षा प्रसार, समाज में एकता स्थापित कराना, समाज सुधार आदि विचारों का उनपर विशेष प्रभाव पड़ा। बड़ी उम्र में उनका नवकार साधक पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकर विजयजी के साथ समागम हुआ। उनकी सरलता, निष्पहता, मैत्री भावना, अनेकांत दृष्टि और साधना से वे विशेष प्रभावित हुए। योगीराज श्री सहजानंदघनजी के साथ राजगृही, हंपी व चेन्नई में उनका समागम हुआ। उनकी योग साधना, अद्भुत जीवन चर्या व अनुभव वाणी से विशेष प्रभावित हुए। श्री लक्ष्मण सूरिजी, लावण्यसूरिजी, पूर्णानंद सूरिजी, भुवनभानुसूरिजी, विक्रम सूरिजी आदि अनेक गुरू भगवंत के साथ उनका समागम रहा। ज्ञान दान: आप धार्मिक शिक्षा को बढावा देने के लिए पंडित श्री कुंवरजी भाई व पंडित हीरालालजी को मद्रास लाये थे। श्री केशरवाडी तीर्थ पर शासन सेवा छात्रावास (गुरुकुल) की स्थापना की थी। श्री जिनदत्तसूरि जैन मंडल के सदस्यों को 'जीव विचार' पढाने के लिए वे केशरवाडी से साहुकारपेट तक बस से आते-जाते थे। अट्ठम का तप होने पर भी पढाने के लिए आना जाना बंद नहीं करते थे। वे धार्मिक अध्ययन कराने के बाद ही अट्ठम का पारणा करते थे। उन्होंने अनेक धार्मिक 'शिविरों में युवा वर्ग को प्रेरित किया था। वे संपर्क में आने वालों की जिज्ञासा व तत्व रूचि संतुष्ट करने हेतु धर्मवार्ता के लिए सदैव तत्पर रहते थे। साधकीय जीवन: स्वामीजी की साधना के निम्नलिखित तीन सूत्र मुख्य थे। १. नवकार मंत्र का जप २. आयंबिल का तप ३. ब्रह्मचर्य का खप वे नवकार मंत्र का जाप खूब करते और करवाते थे। वे आयंबिल का तप बहुत करते थे। उनका आयंबिल अलूणा (बिना नमक का) होता था। आहार में चार-पांच द्रव्य ही उपयोग में लेते थे। कभी-कभी रोटी पानी के साथ खा कर आयंबिल पूरा करते थे। अमुक समय बाद उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर लिया था। स्त्री परिचय बहुत ही कम था। उनके जीवन में जयणा का महत्वपूर्ण स्थान था। 'नमामि सव्व जिणाणं' खमामि सव्व जीवाणं' की धुन कभीकभी करवाते थे। यात्रा के समय रेलवे स्टेशन पर भी सामायिक, प्रतिक्रमण आदि नियमों का पालन करने से नहीं चूकते थे। KOREGSe v HOSO909090 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GOOKGASO90900 श्री केशरवाड़ी तीर्थ पर आप भूमितल के कमरे (गुफा) में जप व ध्यान साधना करते थे। पंन्यास प्रवर श्री भद्रकंर विजयजी से आपने दीक्षा देने के लिए निवेदन किया था। गुरुदेव ने उनकी उम्र, स्वास्थ्य आदि कई बातों का विचार कर दीक्षा नहीं दी। उनको श्रावक धर्म का पालन करते हुए आत्मकल्याण और शासन सेवा करते रहने का परामर्श दिया था। उनमें आत्मज्ञान प्राप्त करने की विशेष रूचि थी। भविष्य मेंघटने वालीघटनाओं के संकेत: जैन एकता के सूत्रधार प्रसिद्ध आचार्य श्री वल्लभसूरिजी के प्रति उनका भक्तिभाव ज्यादा था। एक बार उनकी देह के अग्नि संस्कार का आभास हुआ। आचार्य श्री का अंतिम समय निकट जानकर वे उनकी सेवा में मुंबई पधारे। एक महिने से भी ज्यादा समय तक वहाँ ठहरकर उनके काल धर्म के बाद ही मद्रास पधारे। साधारण भवन में आयोजित गुणानुवाद सभा में स्वामीजी ने खुद इस घटना का उल्लेख किया था। उनको कुछ अनुभूतियाँ हुई थी। उनकी अनुभूतियाँ प्राय: गुप्त रही। जिनशासन सेवा: आपने आबूजी में जैन मिशन सोसायटी नामक संस्था की स्थापना की थी। बाद में इस संस्था को मद्रास ले आए। हिन्दी, अंग्रजी व तमिल भाषा में कई पुस्तकों का प्रकाशन किया और उनका वितरण जैन व अजैन लोगों के बीच किया। जैन धर्म, अहिन्सा, शाकाहार आदि के प्रचार व प्रसार का कार्य लंबे समय तक चला। सोसायटी के अंतर्गत निम्नलिखित संस्थायें चलती थी। १. जैन मिशन एलिमेन्ट्री स्कूल २.जैन मिशन लायब्रेरी ३. कला निकेतन ४. धार्मिक अध्ययन के लिए कक्षाएँ सर्वधर्म सम्मेलनों में उन्होंने कई बार जैन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। श्वेताम्बर ओर दिगम्बर समाज में आपस में सौहार्द का वातावरण बनाने के लिए वे हमेशा प्रयत्नशील रहे। साधर्मिकों की आर्थिक उन्नति के लिए भी वे प्रयत्नशील रहे। साउथ इंडियन ह्युमेनिटेरियन लीग के कार्यो में उनकी सक्रिय भागीदारी रही। जिन शासन की विविध सेवाओं POSEROSSRO W SOSDOOTCOM Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के उपलक्ष में महाराष्ट्र राज्य के राज्यपाल श्री मंगलदास पकवासा के कर कमलों से मुंबई में उनको विशिष्ट पुरस्कार दिया गया। तत्व चिन्तक, वक्ता एवं लेखक: नवकार महामंत्र व प्रकृति का शासन यानि विश्व तंत्र की व्यवस्था (Cosmic Order) के बारे में उनका चिन्तन गहन था। उनके विचारों का प्रसिद्ध लेखक और चिन्तक श्री वसंतभाई पर गहरा प्रभाव पड़ा। वे हिन्दी और अंग्रेजी दोनो भाषाओं में धारा प्रवाह भाषण देते थे। उनके भाषण रूचिकर, तथ्यपूर्ण व ओजस्वी होते थे। महावीर जयंति के अवसर पर मद्रास के राज्यपाल (भावनगर महाराजा) द्वारा आयोजित समारोह में विशाल जनमेदनी के समक्ष उनके द्वारा दिया गया भाषण विद्वत्तापूर्ण और प्रभावोत्पादक था। वह भाषण हिन्दी भाषा में लघु पुस्तक के रूप में छपा था। उन्होंने हिन्दी व अंग्रेजी भाषा में कई पुस्तकों का लेखन किया था। योगीराज श्री शांतिसूरिजी के बारे में विस्तृत निबंध लिखा था जो 'शांति ज्योति' नामक पत्र में प्रकाशित हुआ था। कई महत्वपूर्ण पुस्तकों के लिए भूमिका, उपोद्घात, प्राक्कथन आदि लिखा था। पुडल तीर्थ (केशरवाडी): ___चेन्नई से करीब १४ कि.मी. की दूरी पर पोलाल नामक गांव में श्री आदिनाथ भगवान का बिलकुल ही छोटा मंदिर था। सकल जैन संघ के सहयोग से उन्होंने इस पुडल तीर्थ (केशरवाड़ी) का उद्धार किया। आज यह तीर्थ पूरे भारत में प्रसिद्ध हो गया है। इस तीर्थ पर दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरिजी की दादावाडी, श्रीमद् राजचंद्र गुरुमंदिर, आ. पूर्णानंद सूरिजी गुरू मंदिर, महाविदेह धाम, हास्पिटल, गुलेच्छा कोलोनी, (साधर्मिक भाइयों के लिये आवास) आदि का निर्माण हुआ है। इस तीर्थ पर उपधान तप आदि अनुष्ठान होते हैं। यहाँ जैन धर्म के साहित्य के प्रकाशन व वितरण के साथ-साथ जीव दया की गतिविधियाँ भी होती रही। यहाँ पर मुमुक्षु आश्रम कई वर्षों तक चला। सिद्धपुत्रः प्राचीन काल में "सिद्धपुत्र' होते थे। उनका जीवन साधनाशील व जिन शासन को समर्पित रहता था। इस लुप्त परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए स्वामीजी स्वयं सिद्धपुत्र बने। कई कारणों से यह परंपरा आगे नहीं बढ सकी। पेराजमल जैन Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम 1. नवकार महिमा 2. शिक्षा गुरु-स्तुति:नवकार 3. प्राक्कथन : श्री नवकार महामंत्र 4. मूल लेखक श्री प्रस्तावना 5. नवकार महामंत्र विश्वकल्याण का मंत्रयोग 6. महावीर-कथा (गान) 7. श्री वर्धमान भारती-जिन भारती: प्रवृत्तियाँ और प्रकाशनादि woococcea viienny Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECOGR150909098904 नवकार महिमा नमो अरिहंताणं नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं नमो उवज्झायाणं नमो लोए सव्व साहूणं एसो पंच नमुक्कारो सव्व पावप्पणासणो मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवड़ मंगलम्।। नवकार : नमोकार : णमोकार : नमस्कार मंत्र कितना विराट विशाल विशिष्ट महामंत्र! विश्व-कल्याण, विश्व शांति का महामंत्र!! व्यक्ति-माहात्म्य का नहीं, उसके अंतर्निहित विशिष्ट गुणवाचकता-गुणमहत्ता-गुणसंपदा का अवैयक्तिक महामंत्र!!! अनंत है उसकी महिमा, अपार-अपरंपार है उसका सामर्थ्य, अनिर्वचनीय-अवक्तव्य-अभिव्यक्ति से परे, केवल अनुभूतिगम्य है उसकी देश, कालातीत सर्वकालीन क्षमता। बस चाहिये समर्पित श्रद्धा, संनिष्ठ विश्वास, निर्विकल्प श्रद्धाभरा विश्वास। परमगुरूदेव ने दर्शित की है, दर्शाई-समझायी है अद्भुत अभूतपूर्व रूप से उसकी यह महिमा। पंच परमगुरूओं के रूप में, आत्म तत्त्व के निहित गूढ रहस्य के रूप में, श्रद्धा भक्ति के रूप में, साकार भी-निराकार भी। गहन तात्त्विक भी, सरल, सुलभ, प्रभावपूर्ण दृष्टांतयुक्त भीशिवकुमार के, श्रीमती के, चोर के, अनेकों के। सुने यह सब उनकी ही पावन, प्रभावपूर्ण, आर्ष अनुभव वाणी में। यह तो अंतर्निहित, अचिंत्य माहात्म्य युक्त है। क्या रहस्य भरा पड़ा है इस महामंत्र में? क्या अर्थघटन हो सकता है इसका? सब सुनें, सो, हम इस प्रवचन के द्वारा और फिर क्या रहस्य नमस्कार महामंत्र में गुप्त रहा है यह खोजकर, विवेकप्रज्ञा को जगाकर, फिर प्रयोग में - प्रत्यक्ष आराधना में उसे उपयोग में लायें। एक गानवत्-भजन गानवत् जन्म बन जायेगा फिर आपका, आपके अंत: अनुसंधान का। (सद्गुरूदेव सहजानंदघनजी की 'नवकार महिमा' प्रवचन सी. डी. का प्राक्कथन) GOOGO 1 90909090900 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Cacaceaedoara शिक्षा गुरू-स्तुति : नवकार मेरे गुरू रटे मंत्र नवकार, यही है चौदह पूर्व का सार मेरे गुरू ... अरिहंत-सिद्ध-सूरि-पाठक-मुनि, परमेष्ठि अविकार, पांचों पद में सार आतमा, साध्य-साधक सुविचार मेरे गुरू...1 ज्ञायक लक्षे आत्मभावना भावत उघड़े द्वार, रटत मंत्र कटत छादन ज्यों, लोहे लोहा धार... मेरे गुरू ...2 द्वादशांगी मध्य सार यही ले, शेष प्रवृत्ति निवार, मध्यमा वाचा जपेजापनित्य करपल्लवक्रम प्यार... मेरे गुरू ...3 शान्त दान्त गम्भीर धीर मेरे विद्यागुरू मद टार, पाठक लब्धि गुरू-पद वंदत, सहजानंद अपार... मेरे गुरू ...4 योगीन्द्र युगप्रधान श्री सहजानंदघनजी (सहजानंद सुधा 39/50) GEOGRESS 2 SOCDSCSCSr Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौन-प्रसून-प्राक्कथन : श्री नवकार महामंत्र ॐ नमो अरिहंताणं नमो सिद्धाणं |नमो आयरियाणं नमो उवज्झायाणं/नमो लोए सव्व साहूणं/ एसो पंच नमुक्कारो/ सव्व पावप्पणासणो |मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलम् || आत्मसिद्धि प्रदाता, आत्मस्वरूप प्रकाशकर्ता, विश्वसमस्त कल्याणदाता, अचिंत्य महिमावंत, अनादिनिधान नमस्कार महामंत्र की कितनी गुणचिंतना एवं अभिवंदना करें? उसके जितने ही गुणगान करें उतने अल्प! उसके जितने भी आराधन करें उतने स्वल्प!! अनेक साधकों, अनेक आत्माराधकों ने अनादिकाल से, अनेक अनेक रूपों में उसकी आराधना की और वे इस अनादि अनंत भवसंसार को पारकर अपनी अनादि अनंत आत्मसत्ता को उस शाश्वत सिद्धलोक में सदासर्वदा के लिये सुस्थापित, सुप्रतिष्ठित कर गये...!!! नवकार महामंत्र के उन महान आराधकों की भी वन्दना करते हुए यहाँ उन धन्य आत्माओं से, स्वयं परिचय में आये हुए कई सिद्धवत् आत्माओं में से अभी तो केवल उन दो उपकारक सत्पुरुषों की अभिवंदना सह उनकी नवकार मंत्र निहित निगूढ रहस्यों को समुद्घाटित करने की अनुमोदना करनी है कि जिन्होंने इस वर्तमान काल में अपनी स्वयंसाधना, आत्मानुभूति एवं प्रयोग के द्वारा नवकार मंत्र महिमा को अभिनव अर्थ प्रदान किया। ये दो महापुरुष प्रत्यक्ष उपकारक सद्गुरू जन हैं श्रीमद् राजचंद्र आश्रम हंपीकर्नाटक के संस्थापक योगीन्द्र युगप्रधान सद्गुरूदेव श्री सहजानंदघनजी महाराज और पुडलतीर्थ मद्रास के शोधक-स्थापक स्वामी ऋषभदासजी 'सिद्धपुत्र | प्रथम परम पुरुष प्रभु सद्गुरु के द्वारा की गई नवकारमंत्र की महिमागाथा अनन्य आत्मशरणप्रदा सद्गुरू राज विदेह ऐसे श्रीमद् राजचंद्रजी जैसे इस युग के निराले अनुपम युगदृष्टा के चरणचिन्हों पर चलते हुए की गई अन्यत्र नवकार महिमा सी.डी. से प्रस्तुत है। उन्हीं की सत्संग छाया में पल्लवित दूसरे परम धन्यात्मा स्वामी श्री ऋषभदासजी सिद्धपुत्र की यहाँ पर। सर्व को वह उजागर करेगी। ॐ शांति।। - प्रा. प्रतापकुमार टोलिया KOREGene 3 SOGOOOOOOO Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल लेखक की प्रस्तावना विश्व के समग्र संचालन के पीछे निहित अंतिम उद्देश्य को विश्लेषित-पृथक् करने का और सूक्ष्म रूप से अद्भुत एवं रहस्यपूर्ण ऐसे प्राकृतिक प्रत्यक्ष वास्तविक तथ्यों को परिश्रम पूर्वक देखने का-उसके-गुप्त रहस्यों को देख-खोज कर उद्घाटित करने का - यदि कोई बुद्धिमान चिंतक प्रयत्न करता है, तो उसे पूर्ण हृदय से स्वीकार करना पड़ेगा कि प्रकृतिकुदरत-के प्रत्येक कार्य का विधान विश्व के जीवित प्राणीओं को लाभ पहुंचाने, उनकी रक्षा करने, उनका निर्वाह करने और उनको इस विश्व में ऊँचा उठाने और पार के दूसरे विश्व में ऊर्वीकृत करने का है। सूर्य, चन्द्र, सितारे, पर्वत, पृथ्वी, सागर, सरिताएँ, जंगल, अग्नि, वायु, जल सारे प्रकृति तत्त्व इसी उच्च उद्देश्य को चरितार्थ करने का कार्य कर रहे हैं, जो कि दिवस के प्रकाश की भाँति निर्विवाद तथ्य हैं। यदि हम आगे चलें और विश्व के गहन तल में डूबें और नापें-जाँचें, तो यह दिखाई देगा कि विश्व के सारे सचेतन और अचेतन पदार्थों को उनके भीतर सदासर्वदा रही हुई उनकी मूलभूत लाक्षणिक विशिष्टताओं पर उन्हें स्थिर बने रहना, चिपके रहना चाहिए। एक उदाहरण के तौर पर जल की नैसर्गिक लाक्षणिकताएँ हैं सदा शीतलता, प्रवाहिता और पारदर्शिता। जब जल कीचड़, अग्नि अथवा हवा के साथ सड़ा-गला बन जाता है तब वह दुर्गंधपूर्ण, गरम, गंदा और चिकना भी बन उठता है। परंतु जैसे ही जल को उपर्युक्त पदार्थों के संपर्क से दूर किया जाता है कि प्रकृति अपने आप ही उसके विजातीय द्रव्याणुओं को निकाल देती है और वह अपनी मूलभूत लाक्षणिकताएँ अपना लेता है, प्राप्त कर लेता है - धीरे से और शीघ्रता से भी और उत्क्रांति के वैज्ञानिक उपक्रम को जोड़ने की सहायता के द्वारा भी प्रकृति क्रमश: दूषित जल को उसकी मूलभूत लाक्षणिकताओं में परिवर्तित कर देगी। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक चैतन्य विज्ञान अथवा योग के शास्त्रीय आधार के अनुसार, आत्मा को मूलभूत सत्ता के रूप में कुछ मौलिक लाक्षणिकताओं से सजाया गया है जैसे कि ज्ञानबोधलाभ, शांति, समाधि, शाश्वती दशा इत्यादि, जो कि उसकी सुखप्राप्ति के पीछे दौड़ने की और दर्शन एवं ज्ञान की खोज की और अन्यों पर आज्ञा चलाने की उसकी मनोवैज्ञानिक विरासत में पाई गई वृत्तियों से पहचाना जा सकता है। अन्यों पर आज्ञा या अधिकार जमाने की, स्वसत्ता स्थापित करने की आत्मा की वृत्ति की तुलना, नेतृत्व पाने की और रोग, आपदा, मृत्यु जैसी अप्रिय अनीष्ट घटनाओं को अपने से अलग रखने की चेष्टा से की जा सकती है क्योंकि वह (आत्मा) स्वभावत: प्राकृतिक रूप से शाश्वत, सर्वज्ञतापूर्ण, सर्वोच्च एवं आनन्दमय है। प्रकृति किसी भी सचेत और अचेत तत्त्व की मूलभूत लाक्षणिकता का हनन, परिवर्तन, अवरोधन, रूकावट आदि न हो इसलिये अत्यंत ही सावधान और जागृत रहती है, परंतु अपनी अज्ञानता के कारण आत्मा भौतिक अथवा विजातीय आक्रमण से उन सारी GEORGE 4 SONGSOORam Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृत्तियों को उधार लेती है जो कि भ्रम, आसक्ति एवं द्वेष के माध्यम से प्राप्त होती हैं जिन्हें तत्त्वज्ञान की भाषा में मोह, राग, द्वेष कहा जाता है, जो तकनीकी दृष्टि से मन का आकर्षण और विकर्षण (अपकर्षण) कहा जाता है। ऐसी पाबन्दी से आत्मा ने अपने आपको विकार, इच्छाएं, महत्वाकांक्षाएँ, क्रोध, मान, माया, लोभ, क्रूरता, ईर्ष्या, शत्रुता, भावुकता, आदि सभी दुर्गुणों और भ्रष्टताओं का दुष्ट निवासस्थान बना दिया है। ये दुष्ट प्रवृत्तियाँ मोहभ्रमित आत्मा को अनीच्छनीय एवं नापसंदगीपूर्ण ऐसे निर्वासन के भौतिक अस्तित्व में सहन करने बाध्य कर देती है, कि जो दारिद्रय, चिंता, दुःख, वियोग, कष्ट, पीड़ा, आपदा, विनाश, रोग, मृत्यु और जीवन के ऐसे असह्य विपर्यासों से भरा हुआ हो। प्रकृति सदा रात दिन यह संघर्ष करती है-आत्मा को प्रेरणा देने अपने ऐसे सारे दुर्गुणों को नष्ट करने और हमेशा शाश्वत रूप से अपने दीर्घजीवी, मौलिक लाक्षणिकताओं में लीन रहने की, स्वयं के प्रमाणभूत मार्गदर्शकों के द्वारा आत्मा के संरक्षक एवं दुर्गरक्षक के रूप में सेवारत रहने की, विश्व व्यवस्था के मार्गदर्शन एवं दिव्यानुग्रहपूर्ण महासमर्थ कानून के अनुसार प्रेरणा देने की और आत्मा को जीवन मुक्त भूमिका या जीवन का 'सार-सर्वस्व' कहा जाये ऐसे आत्मा के आनंद और मुक्त स्वरूप में लीन बने रहने में अत्यधिक रूप से सहाय पोषण करने की। अब समस्या है - प्रकृतिमैया की ऐसी कृपा को किस प्रकार पाया जाये और किस प्रकार ऐसे मोह भ्रम के मूल कारण को नष्ट किया जाये जो कि द्वेष और आकर्षण (राग) से जन्मा हो और किस प्रकार सारे दुर्गुणों और जीवन के असहनीय ऐसे सतत परिवर्तन का अंत किया जाय? अपने निजी प्रयोग और अनुभव पर आधारित गहन संशोधन एवं अवलोकन के बाद आत्मा के चैतन्य विज्ञान (योग) के महामना मांधाता महान शोधकजन (The Master minds) यह सलाह परामर्श देते हैं कि भक्तिमय आत्मा का ध्वन्यात्मक उच्चारण ऐसा, पवित्र आत्माओं का पूज्यभाव एवं प्रणामपूर्ण ध्वनि ऐसा नमस्कार मंत्र, उसके चमत्कार पूर्ण और विराट प्रभावों के द्वारा, पूर्व उपर्युक्त असह्य विपर्यासों-दुःखों-कष्टों-आपदाओं को आध्यात्मिक चैतन्यविज्ञान के सिद्धांतों के अनुसार, दूर कर देने में अद्भुत आश्चर्यमय कार्यसिद्धि करता है - सभी विपदाओं को विस्मयजनक ढंग से दूर कर देने में सक्षम सिद्ध होता है। कारण? कारण यह कि विश्व में ध्वनि, नाद से अधिक महान कोई अन्य बड़ी शक्ति नहीं है। (कृपया ध्वनि के चैतन्यविज्ञान पर लिखित डॉ. जस्टीस मुखर्जी, बार एट लॉ, के एवं ध्वनि विषयक चैतन्य विज्ञान के अन्य अधिकृत प्रमाणभूत ग्रंथों का अनुसंधान-संदर्भ देखें। अभी 1970 में मद्रास में आयोजित विश्व मेले (World Fair) में यह प्रयोग द्वारा सिद्ध किया गया था। एक जर्मन वैज्ञानिक ने संगीत वाद्य के संयोग के साथ सहयोगयुक्त ध्वनि पर पानी को ROSCOOKS 5 GOS09080SC Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नचाया था। ध्वनि चैतन्यविज्ञान पर आधारित संगीतवाद्य नाद ध्वनि के अनुसार जल का नृत्य कराया था। ज्होन ड्रायडन ने अपनी कविता St. Cicilia's Day में यह दर्शाया है कि यह नई बात है कि ध्वनि के आंदोलन देवदूतों को धरती पर उतारकर ले आ सकते हैं, और उन्हें नचा सकते हैं उनके द्वारा ध्वनि पर नृत्य करा सकते हैं।" स्वर्गीय डॉ. जगदीश चन्द्र बसु ने अपने वैज्ञानिक साधनों-उपकरणों के द्वारा यह सिद्ध कर दिखलाया है। उनके ये उपकरण पौधों को हिलने डुलने और अपनी पंखुड़ियों को नीचे झुका देने में समर्थ होते थे। इसी प्रकार यह अति पवित्र मंत्र भी जब सच्चे हृदय और गहरी भक्ति के द्वारा उच्चारित किया जाये तब वह आश्चर्यजनक आंदोलन करानेवाले प्रेरक बल को खड़ा करता है, जो कि साधकों को उनके चैतन्यविज्ञान-परक-अथक आध्यात्मिक विकास के लिये मार्गदर्शन प्रदान करता है और उन्हें आत्मा की सारी नैसर्गिक मूल संपदाओं को प्राप्त करने हेतु ऊपर बतलाये अनुसार बल भी देता है और आत्मा को मिथ्याभ्रम की चंगुल से मुक्त कर देता है, अपने मन के मोह, राग, द्वेष आदि से छुड़ा देता है - मुक्त कर देता है कि जिन्होंने इस शाश्वत ऐसी आत्मा को अस्थि,रक्त और मांस आदि के अपवित्र पदार्थों से भरे हुए भौतिक शरीर के पिजड़ें में गुलाम बनाकर कैद रखा है। अपने विकास के लिये साधक को परिशिष्ट में दर्शित प्रार्थना विषयक सचेत करनेवाली अधिकृत प्रमाणभूत पुस्तकें भी पढकर, इस महामंत्र के ध्वनि-उच्चारण में छिपे हुए गुप्त, रहस्यमय ऊर्वीकरण (ऊर्ध्वगमन) का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। साधकों को इस लेख में दी गई सूचनाओं पर भी अमल करना चाहिये। यदि इस महामंत्र के सतत उच्चारण का अभ्यास पद्धतिपूर्वक कुछ समय तक चालु रखा जाय तो साधक निश्चित रूप से वे सर्व वस्तुएँ प्राप्त करेगा जो कि ऊपर बताई गई हैं और साक्षात्कार एवं मोक्ष के प्रदेश में पहुँचेगा। अंत में मुझे कहने दें कि यह स्पष्ट है कि प्रकृति (Nature) या वैश्विक व्यवस्था (Cosmic Order) के द्वारा किया गया समस्त विश्व का संचालन तंत्र सभी सचेतन प्राणियों पर, भगवत्कृपा के शक्तिपूर्ण कानून के अनुसार, स्वर्गीय सुख, शान्ति, चिरजीवी आनंद की वर्षा करने हेतु निर्मित है। अपने कथनी और करनी युक्त अधिकृत मार्गदर्शकों के द्वारा योग्य मार्गदर्शन प्रदान कर प्रकृति इस प्रकार के पवित्र उद्देश्य को सिद्ध करती है। नमस्कार महामंत्र ऐसे सभी पवित्र और सुसिद्ध मार्गदर्शकों की महासभा है और नमस्कार महामंत्र में दर्शित ये पांच सूत्र उपर्युक्त महासभा के पवित्र व्यक्तियों को पावन अंजलि और विनम्र अभिवंदना व्यक्त करने और उन्हें बहुमान देने हेतु है। ये परमकृपालु (पाँच) मार्गदर्शक, जो कि आत्म साक्षात्कार के स्पष्ट प्रतिनिधि हैं, सदा ही उपर्युक्त आत्मा की स्वाभाविक लाक्षणिकताओं में डूबे रहते हैं जैसा कि ऊपर बताया गया है। इसलिये इस महामंत्र का ऐसा उच्चारण साधक को अपनी Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलभूत मौलिक लाक्षणिकताओं की प्राप्ति हेतु पुष्ट करता है। और इस प्रकार वह जीवन की सारी दुष्ट विकृतियों का अंत ला सकता है, शाश्वत शांति, सांत्वना एवं संपूर्णता को प्राप्त कर सकता है, अपनी स्वयंभू और स्वतंत्र, सर्वोच्च, अविरोधी आत्मशक्ति को प्राप्त कर सकता है और इस भौतिक करुण अस्तित्व की अनादि की लड़ाई में विजेता बन सकता है। इसलिये नमस्कार महामंत्र अत्यंत शक्तिमान, सहयोगी एवं समन्वयकारक महाबल है, वह प्रकृति की सरकार के शांति मिशन को बड़ी ही सफलता दिला सकता है। अत: यह नमस्कार मंत्र मूलत: प्रकृति के सायुज्य अनुसंधान, साम्य, ऐक्य में है। इस प्रकार यह अविरोध रूप से सिद्ध हुआ कि प्रकृति और मंत्र-दोनों का अंतिम उद्देश्य-अंतिम लक्ष्य एक ही है। अत: किसी अतिशयोक्ति के बिना, निष्पक्षपातपूर्वक हमें कहना है कि नमस्कारमंत्र का उच्चारण सूचित एवं स्वीकृत किया गया है प्रकृति के द्वारा, जो कि ध्वनि के आध्यात्मिक विज्ञान-चैतन्यविज्ञान में से निष्पन्न-आविर्भूत हुआ है। उसे बौद्धिकतापूर्वक अत्यंत पवित्र वैश्विक महामंत्र कहा जा सकता है और वास्तव में वह एक सर्वसामान्य संपदा (Common Wealth) है जो कि सर्वजन हित-कल्याण के सार्वत्रिक हेतु से बनी हुई है। यह मंत्र न तो किसी विशेष दिव्य आत्मा, देवता, व्यक्ति तक सीमित है, न किसी विशेष जाति, पंथ,संप्रदाय, देश और प्रखंड तक। वह किसी समय और स्थल (Time & Space) की सीमा के पार, अतीत, वर्तमान एवं अनागत के सारे ही पवित्र और सर्व परमोच्च आत्माओं के प्रति अभिवंदना, नमस्कार, प्रणिपात का उद्गम स्रोत है। वह सदा ही हमारे काल्पनिक अवधारण, बौद्धिक पहुँच और मनोवैज्ञानिक अभिगम से परे है। और अंततोगत्वा यह प्रकृति के अंतिम उद्देश्य को पूर्ण करता है। अत: वह स्वाभाविक रूप से ही प्रकृति की सरकार अथवा वैश्विक कानून नियम का मंत्रोच्चारण है। यह महामंत्र, जिसमें कि 68 अक्षर संनिहित हैं, शास्त्र में तीर्थ अथवा पावन स्थान के रूप में माना गया है। मेरे अपने मतानुसार मुझे उसकी मूलभूत विशेषता 68 उपमाएँ परिशिष्ट में प्रस्तुत करने में बड़ी प्रसन्नता देनेवाली प्रतीत होती है। इस नवकार महामंत्र के पांच सूत्र में दर्शित कृपावंत एवं महिमावान दिव्यात्माओं के वृंद के अनुग्रह से मैं कुछ समय में इसकाअत्यंत सरल और स्वीकार्य प्रतिपादन प्रस्तुत करने की आशा रखता हूँ, जिसमें मैं इन विचारों को समझाऊँगा जो सत्वपूर्ण एवं मननीय अर्थसे परिपूर्ण हैं। सभी प्रशांति और पूर्णता प्राप्त करो। स्वामी ऋषभदास पोलाल, रेडहिल्स मद्रास || ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Geacoccocesanan ॥ नमोऽर्हत् सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः।। || सहजात्मस्वरूप परमगुरू|| || श्री सद्गुरुदेवाय नमः श्री वीतरागाय नमः श्री गौतम स्वामिने नमः।। || श्री सरस्वत्यै नमः परमकृपालुदेवाय नम: दादा दत्तगुरुदेवाय नमः।। लेखक : स्वामी श्री ऋषभदासजी 'सिद्धपुत्र' (आर.बी. प्रागवट) मद्रास अनुवादक : प्रा. प्रतापकुमार ज. टोलिया, जैन संगीत रत्न, बेंगलोर नवकार महामंत्र विश्वकल्याण का मंत्रयोग मूल अंग्रेजी पुस्तिका-युनिवर्सल वेलफेयर इन्कैन्टेशन का हिन्दी रूपांतरण विश्व कल्याण का सर्वाधिक पवित्र महामंत्र विकसित विज्ञान के इस अभूतपूर्व युग में ध्वनिशक्ति के मूलभूत सामर्थ्य के विषय में कहने की कोई भी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ध्वनि की एवं सर्वश्रेष्ठ ध्वनि तरंगों की अद्भुत सिद्धियाँ हम देख रहे हैं। ध्वनि यह विश्व के संवेदनशील सजग सचेत और संवेदनशीलता विहीन पदार्थों के बीच मूलभूत रूप से संवाद स्थापित करनेवाला, कडीरूप बननेवाला एक अत्यधिक शक्तिशाली माध्यम है। प्राकृतिक नियमानुसार ध्वनि की, आवाज की तरंगें प्रत्येक पदार्थ को घिरे रहती हैं और उनके लक्षण और शक्ति पर आधारित एक निश्चित प्रकार का वातावरण सृजित होता है। फलत: कई दार्शनिक परंपराओं या पद्धतियों द्वारा ध्वनि शक्ति भी प्राय: सामान्यतया उपयोग में ली जाती हैं और तांत्रिक दृष्टि से वे उन्हें 'मंत्र' अथवा 'मंत्रयोग' कहते हैं। अगर वह पद्धति पूर्वक एवं सुमधुर स्वर में उच्चारित की जाती है तो वह उनके पापों को धोने का प्रबल उपाय बनी रहती है। जैन दर्शन का रहस्यपूर्ण नवकार मंत्र निर्मित हुआ है - सारे ही करुणावंत, सुप्रतिष्ठित, एवं मुक्त सिद्धात्माओं की परमेष्ठि-माला को अंजलि, नमस्कार, वंदना, पूजाभक्ति अर्पित करने के लिये। इसलिये वह महामंत्र कहा जाता है। यह महामंत्र किसी अमुक पवित्र भूमि अथवा व्यक्ति के साथ ही सीमित या अनुबंधित नहीं है, परन्तु सर्व सुप्रतिष्ठित और दिव्य आत्माओं से आश्रित रहने के कारण वह अपने स्वरूप में 'वैश्विक' अथवा 'जागतिक' है। अत: जहाँ पर भी यह महामंत्र संनिष्ठा, श्रद्धा, भक्तिपूर्ण हृदय और मन की एकाग्रता से उच्चारित किया जाता है, वहाँ वह पवित्रता और शांति का विशेष शक्तिशाली Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GOOGOSSO90989096 वातावरण सृजित कर सकता है। कुदरत की योजना है - ऐसे उच्च परिशुद्ध एवं पवित्र आत्माओं के द्वारा सृजित शक्ति में से शुद्धिकरण एवं पवित्रीकरण का सर्वव्याप्त वातावरण समुत्पन्न करने की। इसलिये उनमें से, उन करूणावंत आत्माओं के निकटवर्ती स्थान में से, मंत्रजाप की ध्वनि तरंगें हमारी आत्मा के शुद्धिकरण हेतु अणुओं और परमाणुओं को आंदोलित करती हैं और कोई मूलभूत ऊर्जा उत्पन्न होती है, इसी कारण से हम साधुओं और संतों को वन्दना-अंजलि अर्पित करते हैं और यात्राधामों के पवित्र स्थानों की यात्रा करते हैं कि जहाँ से, जिन स्थानों में से हम हमारी आत्माओं को शुद्ध करनेवाले पवित्रता और शांति से आंदोलित परमाणु प्राप्त कर सकें। शास्त्रों में कहा गया है कि जंगलों और गुफाओं में रहनेवाले खूखार, हिंसक और जहरीले प्राणी भी पवित्र साधुओं, संतों और स्थानों के इस आंदोलित वर्तुल के संपर्क में आने पर शांत और दयार्द्र हृदयवाले बन जाते हैं। उनकी हिंसक प्रकृति कुदरत द्वारा शांत, शमित की जाती है। जब तक कि वे (साधुसंत) वहाँ होते है, वे वृत्तिओं का रूपांतरण कर डालते हैं। ध्यान घरने वाले साधुओं के निकटवर्ती चमत्कारिक असरों के कारण ये हिंसक प्राणी उनके प्राकृतिक शत्रुओं के साथ भी बंधुभावपूर्वक रहने लगते हैं। भूत, भविष्य, वर्तमान के पार्थिव भूलोक में अथवा अपार्थिव ऐसे सिद्धलोक में बसनेवाले इस लोक के सर्व पवित्र और दिव्य आत्माओं के साथ यह महामंत्र संबंधित होने के कारण से गहरे पूज्यभाव पूर्वक किया गया उसका उच्चारण हमारे इस दुःखी दुन्यवी जीवन के बंधन में से, हमारे अपने स्वयं-प्रकाश, उत्थान और ऊर्वीकरण और निर्वाण के लिये निश्चित रूप से कोई संगीन, यथार्थशक्ति लायेगा। इस महामंत्र से व्युत्पत्ति विषयक (शब्द साधन विद्या विषयक) अर्थ समझने पर यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि यह महामंत्र किसी जाति, वर्ण, समाज, प्रजा, देश या खंड के चौकठे में बंधा हुआ नहीं है, परंतु वह विश्वकल्याण के समान हेतु अर्थसर्जित वैश्विक महामंत्र है। __ हम कई बार ध्वनि की विराट अद्भुत शक्तियों के विषय में पढ़ते हैं कि अत्यंत मूल्यवान वैज्ञानिक साधनों और यंत्रों को 'सॉनिक' और 'सुपर-सॉनिक' जैसे नाद-वाहकध्वनि वाहक-तरंगों से साफ किया जा सकता है। यह जाना गया है कि इन दिनों मूल्यवान वस्त्र भी इस प्रक्रिया के द्वारा धोये जाते हैं। इसी प्रकार महामंत्र में से उत्पन्न होनेवाले उच्चारण तरंगों के द्वारा सारे ही गंदे पापों को धो डालकर हमारी आत्माओं को परिशुद्ध कर स्फटिकवत् बनाया जाता है कि जिससे हम शुद्धिकरण और पूर्णता की पद-भूमि प्राप्त कर सकें। इसी कारण से पौर्वात्य और पाश्चात्य की प्राय: सारी ही परंपराओं और प्राचीन अर्वाचीन तत्त्वज्ञान-शाखाओं में मंत्र, उच्चारण और जप-योग को अत्यंत महत्व दिया गया है। परंतु इस गूद रहस्य को Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R eacA9000909096 समझना और परखना हमारी शक्ति के परे होने से उसकी व्याख्या व्युत्पत्ति-शास्त्र की परिभाषा में की गई है कि जिससे मंत्र को हम एक महान रहस्यपूर्ण शक्ति बना सकें। हमारे समक्ष ध्वनि-शक्ति की चमत्कारिक असरों से सम्बन्धित ऐसे ऐतिहासिक दृष्टांत भी हैं कि जिनमें तानसेन, बैजु बावरा जैसे सुप्रतिष्ठित संगीतकारों ने मुगल दरबार समक्ष ध्वनि-शक्ति की चमत्कारिक असरों की वर्षा बरसाकर, दीपक जलाकर और पालनों को झुलाकर दर्शाया हो। यह सिद्ध हो चुका है कि महामंत्र का उच्चारण धातु और पत्थरों को रूपांतरित कर उनको प्रवाही रूप में घुला देता है। इसलिये महामंत्र का उच्चारण दुष्ट व्यक्ति को सद्गुणी व्यक्ति में, क्रूर व्यक्ति को दयावान में, अप्रामाणिक को प्रामाणिक में और कृतघ्नी को कृतज्ञ में परिवर्तित कर दे सकता है। यह केवल कल्पना नहीं है, परंतु अनेक अभीप्सुजनों, साधकों, साधुओं और संतों का अनुभव एवं प्रयोग किया हुआ ठोस तथ्य है और इसलिये आत्मा के शुद्धिकरण और संपूर्णकरण हेतु नवकार मंत्र का प्रयोग किया जाता है। इस महामंत्र में समस्त विश्व के अतीत, वर्तमान और भविष्य के सारे ही मंगलमय, परम पवित्र सद्गुणी और सदाचारी आत्माओं का समावेश किया गया है, जिससे यह स्वाभाविक रूप से ही सिद्ध हुआ है कि इस मंत्र का उच्चार करने से कोई अनोखी, अनन्य शक्ति सृजित होती है, सारे ही सद्गुणों के साथ उसका गुणाकार होता है और सभी दुर्गुणों को वह चकनाचूर कर देती है। इन पवित्रतम और परम पूजनीय आत्माओं को इस महामंत्र में किस प्रकार समाविष्ट किया गया है यह नीचे समझाया गया है। नमो अरिहंताणं अरिहंत: __ अर्हतों को नमस्कार कि जो व्युत्पत्ति शास्त्र की दृष्टि से सुयोग्य, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी एवं समग्र विश्व के सच्चे मार्गदर्शक हैं और जो आत्मा एवं अनात्मा (चेतन-जड़) तत्त्वों के लक्षणों पर प्रकाश डालते हैं - विश्व की रचना में घटक तत्त्व के लक्षणों पर। उनके निसर्ग-प्रदत्त दिव्य आभूषणों और शास्त्र-सूचित अपवाद रूप चमत्कारिक घटनाप्रसंग (जो कि संक्षेप में नीचे दिये जा रहे हैं, उनके कारण) से वे प्रकृति-निसर्ग-कुदरत की सरकार के ऊंची से ऊंची पदवी को धारण करने वाले अत्यंत ही प्रामाणिक प्रतिनिधि के रूप में सिद्ध हुए हैं। निसर्ग के नियमों को संवादी रूप से सुदृढ़ कर, उन नियमों के साथ कितने ही एकधारा (सतत) जन्मों तक सुसंगत O RGE 10909090009 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cecececece i sosososos रहकर वे निसर्ग - दर्शित शुद्धिकरण एवं पूर्णता प्राप्ति का मार्ग, विश्वकल्याण के सर्वसामान्य उद्देश्य से अपनाते हैं और उपदेश देते हैं। नमो सिद्धाणं सिद्ध: www नमस्कार उन परमोच्च आत्माओं को, जो इस नाशवंत स्थूल शारीरिक देह के बंधनों से मुक्त हुए हैं और जिन्होंने सदाकाल के लिये इस पार्थिव अस्तित्व से अपने आप को उठा लिया है और जो ज्ञान, दर्शन, सुख, सामर्थ्य के अनंत गुणतत्वों में लीन हो चुके हैं। जिस प्रकार हमारे जीवन हेतु हम विश्व में से प्रकाश, उष्णता और अन्य उपयोगी तत्त्व प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार केवल उनके पवित्रीकृत मुक्त बने हुए अस्तित्व से वैश्विक जीव अपने आत्मसाक्षात्कार के मार्ग पर दिव्य कृपा के जागतिक नियमानुसार फलप्रद साधनसामग्री की संपदा प्राप्त करते हैं। आचार्य: नमस्कार उन आचार्यों को जो सर्वज्ञ आर्हतों द्वारा निर्दिष्ट (किये हुए) तत्त्वों का आचरण करने में और पूर्ण रूप से उपदेश देने में और सत्य की मशाल से ज्योति से विश्व को सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् चारित्र के राजमार्ग पर ले जाने में समर्थ और तज्ज्ञ (निपुण) हैं। नमो उवज्झायाणं उपाध्याय: नमो आयरियाणं नमस्कार उन उपाध्यायों को जो सदा ही पवित्र शास्त्र ग्रंथों का अध्ययन करने में लीन रहते हैं और उनका सम्यक् तात्पर्यार्थ समझने के बाद आत्मजय के विज्ञान में वे साधुसाध्वियों को शिक्षा देकर तैयार करते हैं और पवित्र शास्त्रों के गुप्त गूढ़ रहस्यों के विषय में बहुजन समाज को प्रेरणा भी देते हैं। नमो लोए सव्व साहूणं साधुः नमस्कार उन साधुओं को जो अपने वरिष्ठ गुरुजनों, आचार्यों और उपाध्यायों की 11 5050303051 FREEEEEEEE 11 JA Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECORRERA9090989096 आज्ञानुसार वर्तन करते हैं और जिन्होंने आर्हतों-जिनों द्वारा प्ररूपित अहिंसा, समतासमदृष्टि और तपस्या के उमदा मिशन को परिपूर्ण करने हेतु अपने जीवन समर्पित कर दिये हैं और जो आनंद एवं सौंदर्य के शाश्वत निवास स्थान ऐसे लोक के सर्वोपरि अग्र प्रदेशों में स्थित/बसते सिद्धों की मुक्तात्माओं की सिद्धदशा का सतत ध्यान धरते हैं। इन पांच नमस्कारों के बाद की शेष चार पंक्ति की "चूलिका'' इस सारी बात को संक्षेप में प्रस्तुत करती है और यह दर्शाती है कि ये पाँच नमस्कार विविध प्रकार के पापों-कुकर्मों जैसे कि क्रूरता-हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, राग, क्रोध, मान, माया-कपट, लोभ, प्रलोभन, घृणा, झगड़ा-फिसाद, निंदा, दोषारोपण, दंभ, मिथ्यात्व-मिथ्या श्रद्धान् इत्यादि का नाश करते हैं और आत्मा के ऊर्वीकरण , पवित्रता और पूर्णत्व हेतु भ्रातृभाव, सत्य, प्रामाणिकता, ब्रह्मचर्य, औदार्य, क्षमा, मानवता, सदाचरण, संतोष, अनासक्ति, परोपकार, कृतज्ञता, अनुमोदक-प्रकृति, सरलता, मन:स्थैर्य, पूज्यभाव, सौजन्य और समदृष्टि सम्यक्त्व जैसे मंगल तत्त्वों को प्रोत्साहन देते हैं। कुदरत का राज्य सारे ही विश्व को व्यवस्थित, वैज्ञानिक ढंग से और गणितिक कानूनों की नींव पर चलाने हेतु है यह बात निर्विवाद रूप से स्वीकृत हुई है। इस प्रकार वह भूत, वर्तमान और भविष्य की सभी सरकारों से बड़ी सरकार है और वह विश्व के सर्व सचेतनअचेतन जीवों के संचालन-नियमन के सूक्ष्म निरीक्षण के द्वारा समझायी जा सकती है। इसलिये जब मानवसृजित सरकार अपने शहनशाहों, राजाओं, मंत्रियों, अध्यक्षों, जैसे प्रतिनिधिओं की मान्यता हेतु सर्वप्रकार की शाही सुविधा और साधनसंपदा की पूर्ति करती है, तब कुदरत की यह समर्थ सरकार, अत्यंत अधिकृत ऐसे आहतों, जिनों और विजेताओं को कि जिन्होंने प्रकृति, शांति और पूर्णता के उमदा लक्ष्य की परिपूर्ति हेतु वैश्विक नियम को बोधित करने, आचरण करने हेतु अपनी सारी ही सम्भव सेवाएँ अर्पित की हैं, अपनी दिव्य संपदा का प्रदान और पूर्ति करने के अपने कर्तव्य से कैसे चुक सकती है? इसलिए आर्हतों के जीवन में घटनेवाले नैसर्गिक चमत्कारपूर्ण प्रसंगों और घटनाओं का आपको एक ख्याल देने के लिये सभी पवित्र और अधिकृत शास्त्रों में विस्तार से प्रतिपादित वर्णनों का थोड़ा-सा अंश प्रस्तुत करूंगा। जब आर्हतों की विश्वविश्रुत आत्मा इस पार्थिव विश्व में अपनी माताओं के पवित्र गर्भ में प्रवेश करने के द्वारा जन्म लेती है, तब उन माताओं को पवित्र धर्म ग्रंथ शास्त्रों में जिनका विस्तार से विशाल विराट अर्थ सूचित किया गया है ऐसे मंगलमय स्वप्नों के पूर्व दर्शन की परिसंतृप्ति होती है । ये स्वप्न प्रकाशमय चमकता हुआ सूर्य, तेजस्वी चंद्र, इत्यादि अपनी R 12 900090007 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GROCERS000000000 संतान को गर्भ में धारण करने की पूर्वसंध्या पर, एक वैश्विक ऊर्जा प्रादुर्भूत होती है, जो महा शक्तिशाली एवं सर्वव्यापी आंदोलनों से परिपूर्ण होती है। वह प्रत्येक जीवित प्राणी के हृदय में प्रवाहित होकर उनमें आनंद, संतोष और सुख की असीम ऊर्मियां और संवेदनाएँ समुत्पन्न करती है। आर्हतों के जन्म समय पर (इन) वैश्विक ऊर्जा आंदोलनों से आकर्षित होकर इन्द्र और उनके अनुचर देवगण उन्हें मेरू पर्वत पर जन्माभिषेकोत्सव के मस्तकाभिषेक हेतु ले जाते है और उन्हें सरिताओं, सागरों, जलप्रपातों के पवित्र जल से भरे सुवर्णपात्रों से स्नान कराते हैं। उस गंधोदक पवित्र स्नानजल से अपने ऊपर छिड़काव करके वे (इन्द्र) अपनी आत्माओं को पवित्र करते हैं। __ अर्हतेन्द्र जिस नगर में जन्म लेते हैं, उसके आकाश में संगीत सुनाई देता है और वहाँ के दिव्य जनों को सुखी, समृद्ध, संपत्तिवान और स्वस्थ बनाने और उनकी सुखसुविधा और साधनों की सारी आवश्यकताएँ पूर्ण करने हेतु इन्द्र सारे प्रयत्न करते हैं। इन्द्र, सर्वज्ञ अर्हतभगवंत अपना पवित्र देशना बोध प्रभावपूर्ण रूप से दे सकें ऐसे भाव से रौप्य, सुवर्ण एवं बहुमूल्य रत्न जड़ित समवसरण (दिव्य धर्मसभा व्यासपीठ रचना) भी सृजित करते हैं। यह दिव्य देशना-बोध-श्रवण करने हेतु देवलोक की आत्माएँ और मनुष्य एवं पशु-पंछी जैसे मानवेतर प्राणी, सभी उपस्थित होते हैं और वे सब, सर्वज्ञ भगवंतों की चमत्कारपूर्ण शक्तियों (अतिशयों) के कारण उस देशनावाणी को अपनी अपनी भाषा में सुनते और समझ लेते हैं उस समवसरण में, कि जहाँ पावन देशना दी जाती है। अशोक वृक्ष ___ अशोकवृक्ष नामक दिव्य वृक्ष सर्वज्ञ भगवंत की पश्चाद् भूमि में रहता है, जो यह सूचित करता है कि आपके सारे दुःख, चिंताएँ, कष्ट एवं कठिनाइयाँ दूर हो जायेंगे और आप सारे दुःख कष्टों से मुक्त होकर सुख, प्रफुल्लितता और प्रसन्नता का अनुभव करेंगे। इसी कारण से यह वृक्ष अ-शोक' के प्रतीकात्मक नाम से पहचाना जाता है, कि जिसका व्युत्पत्ति-शास्त्रीय अर्थ होता है - सारे शोक, दुःखादि से मुक्त। पुष्पवृष्टि उसी प्रकार फूलों की वर्षा (पुष्प वृष्टि) उत्तमोत्तम, अपूर्व सुख और मानसिक शांति का स्वयं पर आच्छादन होना सूचित करती है। - GRIORGERS 13 SNELORSer Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Cococcus Asinan दिव्य ध्वनि दिव्य ध्वनि यह सूचित करती है कि आर्हतों की देशना आपको सम्यक् श्रद्धा-दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र के सुयोग्य, कल्याणकारी मार्ग पर ले जायेगी। चामर ___ चामरों की हलचल सूचित करती है कि जो अभीप्सु भक्त आहेतों के समक्ष वंदना करते हैं वेअपने जीवन के प्रत्येक कार्य, प्रत्येक कार्यक्षेत्र में ऊंचे ही ऊंचे चढ़ेंगे। भामंडल भामंडल अर्थात् झिलमिल प्रकाशित तेजस्वी सूर्य से भी अधिक शक्तिमान और विविध प्रकार के प्रभावों से युक्त दिव्यओरा। यह सूचित करती है कि विश्वभर में प्रवर्तित मोहांधकार को दूर करने के लिये महाप्रकाशपुंज दीप हैं आर्हत् ! सिंहासन बहुमूल्य प्रकाशमान हीरों से शोभांकित (जड़ित) सिंहासन सूचित करता है कि अर्हत् समस्त ब्रह्मांड के मुकुट हैं, समग्र विश्व के चक्रवर्ती राजा हैं और संपूर्ण विश्व के लोकालोक के प्रकाशक हैं। देवदुंदुभि देवदुंदुभि-दिव्य नगाड़ों के बजने की ध्वनि यह सूचित करती है कि हमारे गंतव्य, मुक्तात्माओं के महादेश तक पहुँचने हेतु सच्चे मार्गदर्शक आहेत् हैं। छत्रत्रय मूल्यवान मोतियों और हीरों से जड़ित तीन छत्र यह सूचित करते हैं कि तीनों विश्व - नरक, स्वर्ग और पृथ्वी सारे आर्हतों के द्वारा नियंत्रित होते हैं और वे उनकी सेवा में रहते है। इन सारे अतिशयों के उपरांत, जहाँ अर्हत् विचरण करते हैं, वहाँ सभी ऋतुओं के पुष्प एक साथ ही पल्लवित होते हैं। फलों के वृक्षों पर सर्व ऋतुओं के, सर्व प्रकार के फल आ जाते हैं। दुष्काल और भूकंप कभी भी नही होते हैं। अनाज के सर्व प्रकारों के समय पर के विपुल उत्पादन हेतु पर्याप्त बरसात होती है। पशुओं की भूख की संतुष्टि के लिये बहुत घास और चारा उत्पन्न होता है। तृषा-तुष्टि, सिंचाई एवं कृषि के हेतु सभी सरिताएँ, जल-निर्झर एवं जलाशयादि जल से पूर्ण रहते हैं। जहाँ आर्हत् अपना पैर धरते हैं वहाँ सारे रोगोपद्रव महामारी आदि शमित हो जाते हैं। RECere Seseselese Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमल पुष्प पर उनका पैर रखकर चलना पवित्र धर्मग्रंथों में एवं तिरुक्कुरल में भी भली भांति दर्शाया गया है। समवसरण में गाय और बाघ, शेर और हिरन, सर्प और नेवला आदि की एक साथ बैठने की और अपनी जन्मजात वैरवृत्ति भूल जाने की प्रक्रिया आहेत् के वैश्विक प्रेम से परिपूर्ण भरे हुए, पवित्र हृदय का निर्देश करती है। इसके अतिरिक्त, आर्हत् देश में जहाँ जहाँ विचरणसंचरण करते हैं, वहाँ वहाँ उनकी पवित्र पावन आत्मा के कारण अनाज की कमी, अकालअनावृष्टि, अतिवृष्टि, आँधी-तूफान, बेक्टेरिया समान जंतुओं से खेती की फसल का नाश और सर्व प्रकार के मानवीय कष्ट नष्ट होते है, विद्यमान ही रहते नहीं हैं। संपत्ति-समृद्धि, स्वास्थ्य और सद्बुद्धि अनेकगुना वर्धित होंगे-बढ़ेंगे-और जनता सुखी एवं समृद्ध होगी। यहाँ पर मैं भिन्न-भिन्न आगमों, सूत्रों और प्रमाणभूत शास्त्रग्रंथों से कुछ चुने हुए अवतरण भी उद्धृत करूंगा और पाठकों को मुनिश्री कुंदकुंद विजयजी महाराज विरचित अत्यंत सुयोग्य सर्जन'नमस्कार चिंतामणि' ग्रंथ से मूलभूत श्लोकों का अध्ययन करने के लिए अनुरोध करूंगा। (1) जो नवकार मंत्र का स्मरण करता है उसे अपने आप को सचमुच ही अत्यंत सौभाग्यशाली समझना चाहिये। उसे परम धन्यता माननी चाहिये कि उसके पास इस आदि विहीन अतीत (भूतकाल) और अंतविहीन अनागत (भविष्यकाल) के (भवसागर में) जीवन सागर में (पंचपरमेष्ठी नमस्कार) सर्वाधिक मूल्यवान हीरे जैसा पंच परमेष्ठी नमस्कार है। (2) नवकार मंत्र जिन शासन का अमृत है और चौदह पूर्वो का सम्यक् सार है। हालाँकि जगत दुःखों और उपाधियों (चिंताओं) से भरा हुआ है, फिर भी जो नवकार मंत्र का सदा स्मरण करता है उसे कुदरत, (Nature) सदा उनसे दूर रखती है। दूर रखेगी। (3) सर्व उत्तम वस्तुओं में नमस्कार "सर्वोत्तम', सर्व श्रेष्ठ है, सर्व पवित्र घटनाओं में "सर्वोत्तम पवित्र" घटना है, सर्वपुण्यों में "सर्वश्रेष्ठ'' पुण्य है और सर्व परिणामों में दिया गया "सर्वोच्च परिणाम है। (4) पंच नमस्कार का ही स्मरण करने पर व्यक्ति जल, अग्नि के भयों से और राजाओं, लुटेरों, दुष्कालों और आपदाओं के द्वारा उत्पन्न सारे उपद्रवों से बच जाता है, रक्षित हो जाता है, मुक्त हो जाता है। (5) नमस्कार महामंत्र व्यक्ति को सारी मानसिक एवं शारीरिक चिंताओं और कष्टों से मुक्त करता है, सन्मान एवं सुयश प्रसिद्धि प्रदान करता है, जन्म और मृत्यु के समुद्र काभवसागर का अंत लाता है और विपुल समृद्धि संपदा देता है - न केवल इस संसार में-इस जन्म में-परंतु हमारे भावी जन्मों में भी। RECERS 15 SEEDORIES Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) नवकार मंत्र के केवल एक अक्षर का उच्चारण भी सात सागरोपम के पाप नाश करता है, उसका एक पद पचास सागरोपम के पापों का नाश करता है और संपूर्ण नवकार मंत्र पांच सौ सागरोपम के पापोंको दूर करता है, धो डालता है। (नोट : एक सागरोपम को नरक के जीवों द्वारा अनुभव किये गये पापों से नापा जाता है।) (7) धर्मशास्त्रों में निर्देशित विधि के अनुसार जो एक लाख बार नवकार मंत्र का जाप करते हैं, वे निश्चित रूप से तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित करेंगे और अपने आप को आहेत्, जिनेन्द्र अथवा विजेता की सर्वोच्च अवस्था पर ऊर्वीकृत करेंगे, ऊर्ध्वगमन करायेंगे। (8) जैसे हवा जल को सोख लेती है, वैसे ही पंच परमेष्ठि के प्रति श्रद्धापूर्वक किया गया एक नमस्कार भी सारे रोगों और आपदाओं को हर लेता है, दूर कर देता है। (9) जो दस प्राणों से युक्त इस शरीर को पांच नमस्कार को रटते हुए छोड़ते हैं (देह त्याग करते हैं) वे निश्चित रूप से मुक्ति पाते हैं। यदि किसी अपरिहार्य-अनिवार्य कारण से वह मुक्ति नहीं पाता है तो वह निश्चित रूप से स्वर्ग में वैमानिक देव बनता है। (10) यह समझ लेना है कि जिन्होंने निर्वाण प्राप्त किया है और जो निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त कर रहे हैं, वे केवल नवकार मंत्र के प्रभाव से ही वह प्राप्त करते हैं। (11) ॐकार, ही कार एवं अर्हम् आदि प्रभावपूर्ण बीज मंत्र केवल नवकार मंत्र के ही प्रतिफलन हैं, अर्थात् ॐ, ह्रीं, अर्हम् आदि बीज मंत्रों का मूल स्रोत नवकार मंत्र में है। इसलिये, नवकार मंत्र सभी मंत्रों का उद्गम स्थान है। (12) यह नवकार मंत्र उन सारी सुविधा सामग्रियों और परिस्थितियों का प्रदान करनेवाला निधि भंडार है कि जिस के द्वारा हम जन्म मरण के अशाश्वत जगत को-भवसंसार को पार कर सकते हैं। (13) यदि मन से चिंतित और वचन से प्रार्थित ऐसा शरीर से प्रारम्भ किया हुआ कोई कार्य संपन्न नहीं हो पाया है (परिणाम नहीं ला पाया है) तो वह यह दर्शाता है कि नवकार मंत्र का प्रणाम और वंदनाओं पूर्वक उच्चारण स्मरण नहीं किया गया है। (14) सर्व भयों से मुक्त होने हेतु साधक को भोजन करते समय, सोते समय, जागते समय, किसी भी कार्य का आरम्भ करते समय, दु:खों के एवं कष्टों के समय, हर समय बार बार पंच नमस्कार का स्मरण उच्चारण करना चाहिये। (15) यदि परम तत्त्व अथवा परम पद प्राप्ति की सच्ची खोज की भावना, अभीप्सा हो RECOGOSS 16 GOSDICI090 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CCCCCCCCe 1925050009 SOSOSOSO तो इस हेतु भी महान साधु जन, संत एवं योगी केवल नवकार मंत्र जपते हैं। (16) महान ध्यानियों ने निर्देशित पद्धतियों के अनुसार केवल इस नवकार मंत्र पर सततरूप से एकाग्र होकर ध्यान सिद्ध कर सर्वज्ञता प्राप्त की है और वे तीनों ही लोक (नारक, स्वर्ग, पृथ्वी) में वंदित होते हैं, पूजे जाते हैं, भजे जाते हैं। (17) घातकी पशु और भयानक प्राणी कि जिन्होंने हज़ारों पाप किये है और सैंकड़ों जीवों की हत्या कर डाली है, वे भी साधुजनों एवं संतों के मुख से नवकार मंत्र की आवाज सुनकर स्वर्गलोक पहुँचे हैं। (18) जय हो नवकार मंत्र का ! केवल आठ संपदा उसमें निहित होते हुए भी, उसमें ( नवकार मंत्र में) महान साधुओं और संतों को अनंत संपदा प्रदान करने का सामर्थ्य है । (19) नवकार मंत्र मेरे सच्चे माता-पिता, नेता, देव, धर्म, गुरू, प्राण, स्वर्ग, मोक्ष, सत्त्व, तत्त्व, मति और गति हैं। (20) नवकार मंत्र तीनों जगत में कहीं भी प्राप्त न हो सके ऐसा सारे ही मंत्रों के अर्क रूप रसायण है। सर्व पापों का नाश करने हेतु महाभयंकर ऐसा मोह रूपी विष को उतारने हेतु और सर्व कर्मों का क्षय करने हेतु वह समर्थ है। सर्वज्ञता और मोक्ष प्राप्त करने का वह एक मात्र साधन है। पार्थिव जीवन के असीम सागर को पार करने का वह एक मात्र सेतु है और वह मोक्ष के, मुक्ति के और संप्राप्ति के शाश्वत निवासस्थान (सिद्धालय) पर पहुँचने हेतु वह सारी सिद्धियाँ, विभूतियाँ, आध्यात्मिक संप्राप्तियाँ अपने में संजोये हुए हैं। इसलिये प्रत्येक आत्मा को चाहिये कि वह इस अद्भुत असाधारण परमेष्ठि मंत्र का सतत अधिक से अधिक सम्भव हो उतनी बार जाप करे। कुछ उपयोगी सूचनाएँ इस महामंत्र का जाप करने एवं ध्यान धरने हेतु निम्न दर्शित कुछ प्राथमिक योग्यतायें उसके साधकों के लिये आवश्यक हैं : (1) उसे स्वयं को प्रात: काल में जल्दी, सूर्योदय के एक घंटा पूर्व उठ जागने की और इस पवित्र मंत्र को धीरे धीरे सुमधुर स्वर में, विश्व कल्याणार्थ मानसिक भावांदोलनों के साथ उच्चारित करने की आदत डालनी चाहिये। (2) उसमें सर्व मनुष्यों एवं मनुष्येतर जीवंत जीवों के प्रति दयामय और करूणापूर्ण ष्टबिंदु होना चाहिये और उसे वैश्विक भ्रातृत्व भाव अधिकाधिक रूप से विकसित करना चाहिये। GECE 17 595: xox Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cecececece 1 0000000000 JASAJAJAJA K (3) उसे मांस, मछली, अंडे जैसे मांसाहारी आहार को छोड़ देना चाहिये और उसे कंदमूल एवं मिर्च-मसालों का उपयोग भी कम से कम कर देना चाहिये। (4) उसे मानवता के गुणों को विकसित करने चाहिये और मृदु सौम्य, सभ्य एवं विनम्र बनना चाहिये और सदा पीडितों एवं जरूरतमंदों के प्रति अपनी शक्ति तथा संयोगों के अनुसार यथासम्भव सेवा अर्पित करने का परोपकारी स्वभाव निर्मित करना चाहिये। (5) उसे आत्मसंतुष्ट जीवन जीना चाहिये और अपने पड़ौसी की समृद्धि को देखकर उसमें से आनंद प्राप्त करना चाहिये। सह अस्तित्व का भ्रातृ भाव बढ़ाना चाहिये - उनके वर्ण, जाति या देश के बोध को छोड़ कर । (6) उसे यथासम्भव आत्मसंयम का जीवन जीना चाहिये और कुछ इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं जरूरतों और विकास को दूर करना चाहिये। (7) उसे संगीत, मनोरंजन, पिकनिक पार्टियों, खेल-कूद और सिनेमाओं के शौकों पर नियंत्रण रखना चाहिये । (8) उसे स्वयं की बुद्धि को मोहभ्रमित कर देनेवाले नशीले पेयों, नशा आदि से सदा दूर रहना चाहिये । (9) उसे पंच परमेष्ठि पर एवं उनके गुणों, लक्षणों, योग्यताओं, विशेषताओं आदि जो कि पवित्र धर्मग्रंथों में बताये गये हों उन पर अनुचिंतन करना चाहिये। क्या है नववकार महामंत्र ? क्या है उसकी महिमा एवं पहचान ? क्या है उसका विशिष्ट स्वरूप ? श्री नवकार महामंत्र में अड़सठ अक्षरों का समावेश होता है। जैनों में प्रवर्तित सामान्य श्रद्धानुसार ये (अड़सठ ) अक्षर तीर्थ अथवा पवित्र स्थान जैसे हैं। हमने उसकी निम्न उपमाएँ प्रस्तुत की हैं - 1. पूर्ण व्यक्ति विशेषों को अभिवंदना । 2. पवित्र एवं सर्वोत्तम आत्माओं को प्रणिपात । 3. सर्व पूजनीय, आदर्श साधुओं को भक्ति वंदना । 4. जितेन्द्रीय एवं गुणवान आत्माओं को भाव वंदना । 5. प्रशांत, परिशुद्ध एवं भक्तिमय दशा का पवित्रतम स्थान । 6. सही, सम्यक् ज्ञान का निधि भंडार । ere 18 y 3950595950 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. विकारों के प्रशांतिकरण हेतु शक्ति - उद्गम स्रोत स्थान। 8. सर्व पारगामी सर्वोच्च सत्य का घंटा-घर (टावर हाउस: पावर हाउस) 9.दिव्य दरवेशों का योग निद्रालय। 10. प्रशांति एवं धैर्य का राजप्रासाद। 11. मानसिक विशुद्धिकरण का महाभवन। 12. मानवीय एवं उप मानवीय संवादिता का संगीतवाद्य। 13. आत्मा के स्व-उपचार का स्वास्थ्य धाम (सैनेटोरियम) 14. मानवीय आदर्शों की उच्च शिक्षा का पर्वतीय प्रकृतिधाम (हिलस्टेशन) 15.आत्मा की स्वयं उत्क्रांति और ऊर्ध्वगमन यात्रा का प्रतिमान। 16. दया और करूणा की संवेदनशीलता का मानदंड। 17.सर्व के समान कल्याण का साम्राज्य। 18. तेजोमय, भव्य एवं करूणाशील परमकृपालु मार्गदर्शकों का नक्षत्र मंडल। 19. सद्गुणों एवं श्रेष्ठताओं की सृष्टि का राजनगर। 20. मानवीय, मनुज एवं मानवता के गुणों का निजधाम। 21. दार्शनिक, तात्विक विज्ञान - चैतन्य विज्ञान का आधार। 22. जागतिक-वैश्विक संविधान के कानून का सार। 23. धर्म की सच्चाई का मूलस्रोत। 24. विश्व व्यापक बंधुत्व का सेतु। 25. अवक्तव्य व अकथनीय भावसमाधि का विद्युत् प्रवाह। 26. बंधुत्व और सहानुभूति का उद्गम स्थान। 27.स्वयंस्फुरित आंतरिक शांति का निर्झर। 28. कर्तव्यनिष्ठा और विद्या का प्रकाशगृह (लाइट हाउस) 29. दिव्यदूतों, धर्मप्रचारकों, धर्मप्रणेताओं एवं पयगंबरों का निजनिवास स्थान। 30. आत्मनिरीक्षण और अंतर्ज्ञान का अनुभवक्रम। 31. नैसर्गिक घटना की प्रायोजित प्रगतिपूर्ण आयोजना। GOSCORK 199090909098 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3363 1 9950585ox SEEEEEEEce i o 32. सर्वसाधारण विश्वजीवों का प्राप्तव्य - अंतिम गंतव्य । 33. प्रकृति की सरकार का साम्राज्य शासन का राष्ट्रध्वज । - 34. संस्कृति और सभ्यता का सत्त्व। 35. स्वयं प्रकाशज्ञान की किरणें । 36. भौतिक/ ऐहिक जीवन के सर्व समस्त दुखों का अचूक उपाय, इलाज । 37. आत्म संतोष का वैकल्पिक आहार 38. कायाकल्प करनेवाला मनोरंजन - उद्यान । 39. अनंत ज्ञानका महाज्ञानकोश, विश्व कोश | 40. आत्म निरीक्षण की उन्नति का निमित्त साधन । 41. आत्म साक्षात्कार का राजमार्ग । 42. विश्वकल्याण का सर्वसाधारण महासंघ । 43. सर्व साहस पूर्ण सद्कर्म भावों का महासागर । 44. सद्गुणी आत्माओं का स्मृतिस्थान, स्मारक । 45. मुक्ति के महाराज्य का प्रवेशद्वार । 46. सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र का निर्मल शुद्धिस्थान । 47. मोक्ष के राज्य का प्रतीक चिन्ह । 48. संयम और गांभीर्य का प्रतीक । 49. संपूर्ण आनंद और परमसुख की ध्वजपताका । 50. यथार्थ अवलोकन का दूरबीन । 51. ब्रह्मांड और उसकी अति सूक्ष्म प्रतिकृतिओं का सूक्ष्मदर्शक यंत्र । 52. स्वातंत्र्य और सद्भावना का दुर्ग । 53. संतुष्टि - संतृप्ति के खंड की राजधानी । 54. अनादि अनंत विश्राम देनेवाली सामग्री । 55. क्षमारूप पुष्पों का उद्यान । 56. कृपावन्त परमसत्ता की ओर का प्रवेशमार्ग । Gece 20 305350505 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57. प्रकृति की सरकार का महा-उमदा ध्येय-कार्य (मिशन)। 58. नैतिक बल-दल का लोहचुंबकीय ध्रुवस्तंभ। 59. मानवसंस्कृति के गुणात्मक विज्ञान का प्रेरकबल। 60. शाश्वत सनातन शांति एवं सुख प्रदाता स्वर्ग। 61. संन्यासियों एवं आत्मविजयी विजेताओं का निवासस्थान। 62. निर्मल, सुखी धन्यात्माओं का महाद्वीप। 63. प्रशिक्षण एवं विद्यार्जन की अंतिम सीमा। 64. विवेक बुद्धि/अंत:करण की विजय का रणभेरी नाद। 65.सर्व पवित्र धर्मग्रंथों का सार। 66. हमारी समस्त महा सिद्धियों का अमृतबिंदु। 67. परिशुद्धि एवं परिपूर्णता प्राप्ति की प्रार्थना। 68. महान पथ-प्रदर्शन करानेवाली दुर्गसेना। PAN Rececene 1 SORDSCHOSE Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NIOROSSASSDOCTOR मौन-प्रसून महावीर-कथा पावन कथा, मन भावन कथा, तन-मन-जन लुभावन कथा। कर्मन् की आवन-जावन कथा, वेदन-संवेदन विदारण कथा।। विगलित जहाँ पर सकल व्यथा ऐसी यह पावन प्रभु वीर-कथा, महावीर-कथा।। ज्ञाता-ष्टा, सहन-सुहावन कथा, उपसर्ग-परिषह, परिप्लावन कथा। स्व-सहाय स्व-पुरुषार्थ अवगाहन कथा, (निज) स्वरूप ध्यावन (परि) दर्शावन कथा नहीं चित्त भटकावन यत्र तत्र धावन (कथा) यथा तथा ऐसी यह पावन प्रभु वीरकथा, महावीर कथा।। बहिर्मुक्त अंतर सुध्यावन कथा, अनुभूति-अनुभव-अनुपालन कथा।। नहीं डरन-डरावन-दुभावन कथा, अभय-अद्वेष-अखेद अवधारण कथा।। सांत-अनंत मिलावन कथा, ऐसी यह पावन प्रभु वीरकथा, महावीर कथा।। समकित सावन-सँवारन कथा, कर्म-उद्दीरण-आवाहन कथा। ध्यान-अनल कर्म-जलावन कथा, ऊर्ध्वातिऊर्ध्वगमन की गावन कथा ऐसी यह पावन प्रभु वीरकथा, महावीर कथा।। मनमयूर नचावन तन-कमल खिलावन, कष्ट गलावन कर्म जलावन कथा। विरही मिलावन, हीन-दीन उठावन, दलित-पतित उद्घारण कथा।। सुषुप्त चेतन जगावन, अनंत आतमशक्ति दर्शावन कथा, ऐसी यह पावन प्रभु वीरकथा, महावीर कथा।। देहभान भुलावन कथा, आत्मभान-जगावन कथा प्रतिकार स्वीकार सिखावन कथा प्रतिकूल-अनुकूलन करावन कथा, जिनदर्शन में 'निज' दर्शावन कथा।। काल चिरंतन असीम अनंत कथा, ऐसी यह पावन प्रभु वीरकथा प्रभु अनंत, प्रभुकथा अनंता, गावहि सब श्रुति जन संता ऐसी यह पावन प्रभु वीरकथा, महावीर कथा।। 6ORRECOGS 22 SOSO9000 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cecece à 995350500 अहिंसा, अनेकांत और आत्मविज्ञान की प्रसारक संस्था श्री वर्धमान भारती - जिनभारती : प्रवृत्तियाँ और प्रकाशनादि बेंगलोर में १९७१ में संस्थापित 'वर्धमान भारती' संस्था आध्यात्मिकता, ध्यान, संगीत और ज्ञान को समर्पित संस्था है। प्रधानत: वह जैनदर्शन का प्रसार करने का अभिगम रखती है, परंतु सर्वसामान्य रुप से हमारे समाज में उच्च जीवनमूल्य, सदाचार और चारित्रयगुणों का उत्कर्ष हो और सुसंवादी जीवनशैली की ओर लोग मुड़ें यह उद्देश रहा हुआ है। इसके लिये उन्होंने संगीत के माध्यम का उपयोग किया है। ध्यान और संगीत के द्वारा जैन धर्मग्रंथों की वाचना को उन्होंने शुद्ध रूप से कैसेटों में आकारित कर ली है। आध्यात्मिक भक्तिसंगीत को उन्होंने घर-घर में गुंजित किया है। इस प्रवृत्ति के प्रणेता है प्रो. प्रताप टोलिया । हिन्दी साहित्य के अध्यापक और आचार्य के रुप में कार्य करने के बाद प्रो. टोलिया बेंगलोर में पद्मासन लगाकर बैठे हैं और व्यवस्थित रूप से इस प्रवृत्ति का बड़े पैमाने पर कार्य कर रहे हैं। उनकी प्रेरणामूर्तिओं में पंडित सुखलालजी, गांधीजी, विनोबा जैसी विभूतियाँ रही हुई हैं। ध्यानात्मक संगीत के द्वारा अर्थात् ध्यान का संगीत के साथ संयोजन करके उन्होंने धर्म के सनातन तत्त्वों को लोगों तक पहुँचाने का प्रयत्न किया। श्री प्रतापभाई श्रीमद् राजचन्द्र से भी प्रभावित हुए। श्रीमद् राजचन्द्र के 'आत्मसिद्धि शास्त्र' * आदि पुस्तक भी उन्होंने सुंदर पठन के रुप में कैसेटों में प्रस्तुत किये। जैन धर्मदर्शन केन्द्र में होते हुए भी अन्य दर्शनों के प्रति भी आदरभाव होने के कारण प्रो. टोलिया ने गीता, रामायण, कठोपनिषद् और विशेष तो ईशोपनिषद् के अंश भी प्रस्तुत किये। १९७९ में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई ने उस रिकार्ड का विमोचन किया था। प्रो. टोलिया विविध ध्यान शिविरों का आयोजन भी करते हैं। प्रो. टोलिया ने कतिपय पुस्तक भी प्रकाशित किये हैं । श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, हंपी प्रथम-दर्शन का आलेख प्रदान करनेवाली 'दक्षिणापथ की साधनायात्रा' हिन्दी में प्रकाशित हुई है। 'मेडिटेशन एन्ड जैनिझम', 'अनन्त की अनुगूँज' काव्य, 'जब मुर्दे भी जागते हैं।' (हिन्दी नाटक), इ. प्रसिद्ध हैं। उनकी पुस्तकों को सरकार के पुरस्कार भी मिले हैं। 'महासैनिक' यह उनका एक अभिनेय नाटक है जो अहिंसा, गांधीजी और श्रीमद् राजचन्द्र के सिद्धांत प्रस्तुत करता है। काकासाहब कालेलकर के करकमलों से उनको इस नाटक के लिये पारितोषक भी प्राप्त हुआ था। इस नाटक का अंग्रेजी रुपांतरण भी प्रकट हुआ है। 'परमगुरु प्रवचन' में श्री UKE 23 JAN Jose Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36350 1 005000000 CECECECCGe सहनानंदघन की आत्मानुभूति प्रस्तुत की गई है। प्रो. टोलिया का समग्र परिवार इस कार्य के पीछे लगा हुआ है और मिशनरी के उत्साह से काम करता है। उनकी सुपुत्री ने 'why vegetarianism ?' यह पुस्तिका प्रकट की है। बहन वंदना टोलिया लिखित इस पुस्तिका में वैज्ञानिक पद्धति से शाकाहार का महत्व समझाया गया है। उनका लक्ष्य शाकाहार के महत्व के द्वारा अहिंसा का मूल्य समझाने का है। समाज में दिन-प्रतिदिन फैल रही हिंसावृत्ति को रोकने के लिये किन किन उपायों को प्रयोग में लाने चाहिये उसका विवरण भी इस पुस्तिका में मिलता है। उनकी दूसरी सुपुत्री पारुल के विषय में प्रकाशित पुस्तक 'Profiles of Parul' देखने योग्य है। प्रो. टोलिया की इस प्रतिभाशाली पुत्री पारूल का जन्म 31 दिसम्बर 1961 के दिन अमरेली में हुआ था। पारुल का शैशव, उसकी विविध बुद्धिशक्तियों का विकास, कला और धर्म की ओर की अभिमुखता, संगीत और पत्रकारिता के क्षेत्र में उसकी सिद्धियाँ, इत्यादि का उल्लेख इस पुस्तक में मिलता है। पारुल एक उच्च आत्मा के रूप में सर्वत्र सुगंध प्रसारित कर गई। 28 अगस्त 1988 के दिन बेंगलोर में रास्ता पार करते हुए सृजित दुर्घटना में उसकी असमय करुण मृत्यु हुई। पुस्तक में उसके जीवन की तवारिख और अंजलि लेख दिये गये हैं। उनमें पंडित रविशंकर की और श्री कान्तिलाल परीख की 'Parul - A Serene Soul' स्वर्गस्थ की कला और धर्म के क्षेत्रों की संप्राप्तियों का सुंदर आलेख प्रस्तुत करते हैं। निकटवर्ती समग्र सृष्टि को पारुल सात्विक स्नेह के आश्लेष में बांध लेती थी । न केवल मुनष्यों के प्रति, अपितु पशु-पक्षी सहित समग्र सृष्टि के प्रति उसका समभाव और स्नेह विस्तारित हुए थे। उसका चेतोविस्तार विरल कहा जायेगा । समग्र पुस्तक में से पारुल की आत्मा की जो तस्वीर उभरती है वह आदर उत्पन्न करानेवाली है। काल की गति ऐसी कि यह पुष्प पूर्ण रुप से खिलता रहा था, तब ही वह मुरझा गया। पुस्तक में दी गई तस्वीरें एक व्यक्ति के 27 वर्ष के आयुष्य को और उसकी प्रगति को तादृश खड़ी करती हैं। पुस्तिका के पठन के पश्चात् पाठक की आंखें भी आंसुओं से भीग जाती हैं। प्रभु इस उदात्त आत्मा को चिर शांति प्रदान करो। 'वर्धमान भारती' गुजरात से दूर रहते हुए भी संस्कार प्रसार का ही कार्य कर रही है वह समाजोपयोगी और लोकोपकारक होकर अभिनन्दनीय है। 'त्रिवेणी' लोकसत्ता- जनसत्ता, अहमदाबाद, 22-03-1992 इसीका सात भाषाओं में श्रीमद् राजचन्द्रजी कृत 'सप्तभाषी आत्मसिद्धि' रुप संपादित- प्रकाशित GECE 24 JIJIN boos डॉ. रमणलाल जोशी (सम्पादक, 'उद्देश' ) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म मार्गदर्शिका श्री जिनदत्तसूरि जैन मंडल की संस्थापिका प.पू. प्रवर्तिनी विश्वप्रेम प्रचारिका, समन्वय साधिका श्री विचक्षणश्रीजी म.सा. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनदत्तसूरि जैन मंडल द्वारा संचालित संस्थाएँ... 1984 श्री जिनदत्तसूरि जैन दादावाड़ी केसरवाड़ी, पोलल श्री धर्मनाथ जैन मंदिर, चेन्नई F994 11998 2009 श्री विचक्षण जैन तत्वज्ञान केन्द्र, चेन्नई श्री जिनदत्तसूरि जैन धर्मशाला, श्रीमती जीवनबाई मांगीलालजी गुलेच्छा चेन्नई सहधर्मी आवास गृह "गुलेच्छा कॉलोनी' 2001 श्री विचक्षण जैन उपाश्रय एवं आयंबिल शाला SJSJM स्पेशल रेल यात्री संघ श्री धर्मनाथ जैन मंदिर जीर्णोद्धार पश्चात् का प्रारूप NAVKAR 9840098686 1973/1976/1986/2002/2007