Book Title: Navgrah Arishta Nivarak Vidhan
Author(s): Balmukund Digambardas Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 2
________________ प्रथमावृत्ति की प्रस्तावना प्रिय पाठक! आजकल प्रायः देखने में आता है कि लोग मिथ्यात्व का अधिक सेवन करते हैं। ज्योतिषियों को शनि आदिकी पीड़ा दूर कराने के लिए (जूठे विश्वास से) दान देना, पीपल आदि वृक्षों को पानी देना, उनकी परिक्रमा करना इन बातों को देखकर लोगों को मिथ्यात्व से छुडाने और जैन धर्मानुकूल उनके आचरण कराने को मैंने इस विधान को छपाने का साहस किया है। आशा है कि इससे सर्व भाई लाभ उठावेंगे, यदि केवल शनि आदि की शांति करना हो तो, इनमें से केवल एक ग्रह की ही पूजा करके पोषध (एकाशन) करें और अनादि सिद्ध मन्त्र की जाप रोज देवें तो निःसंदेह इनके ग्रह की चाल के बतलाये हुए अशुभ कर्मका नाश होगा, क्योंकि जीवों के कर्म की चाल और ग्रहादिक की चाल एक समान है। ग्रह किसी को दुःख नहीं देते, किन्तु जीवों को उनके अशुभ कर्म के आगमन की सूचना देकर उपचार करते हैं। इसलिए भाईयों को मिथ्यात्व का त्याग करना चाहिए, क्योंकि इसके समान इस जीवका अहित कर्ता संसार में दूसरा कोई नहीं है। कविवर मनसुखसागरजी (इस विधान के रचयिता) का हमको कुछ भी परिचय न मिल सका। बालमुकुंदजी दिगम्बरदास जैन, सिहौर छावनी वीर संवत 2446 चैत्र सुदी-३

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