Book Title: Nandisutram
Author(s): Devvachak, Punyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 12
________________ ॥ जयन्तु वीतरागाः ॥ प्रस्तावना आज विद्वानों के करकमलोंमें नन्दीसूत्र, उसकी हरिभद्रसूरिकृत वृत्ति, हारिभद्री वृत्तिकी चन्द्रकुलीन आचार्य श्री श्रीचन्द्रसूरिकृत दुर्गपदव्याख्या, जिसका अपरनाम टिप्पनक है, और हारिभद्रीवृत्तिके पर्याय, ये चार ग्रन्थ उपहृत किये जाते हैं । इनका संशोधन मूल नन्दीसूत्रकी आठ प्रतियाँ, हारिभद्री वृत्तिकी चार प्रतियाँ, दुर्गपदव्याख्याको तीन प्रतियाँ और पर्याय या संक्षिप्त टिप्पनककी दो प्रतियाँ, इस प्रकार कुल सत्रह प्रतियों के आधारसे किया गया है। मूल नन्दीसूत्रकी आठ प्रतियोंका विस्तृत परिचय, इसी प्राकृत टेक्स्ट सोसायटो द्वारा प्रकाशित चूर्णीसहित नन्दीसूत्रकी प्रस्तावनामें दिया गया है, इसको न दुहरा कर, विद्वानोंसे विज्ञप्ति है कि इस परिचयको चूर्णीसहित नन्दीसूत्रकी प्रस्तावनासे ही देख लें। मूल नन्दीसूत्र के संख्याबन्ध पाठभेद आदिके विषयमें जो कुछ वक्तव्य और ज्ञातव्य था वह उसमें ही दिया है। इस ग्रन्थमें सिर्फ हरिभद्रसूरि महाराजने जिन पाठों को लक्षित करके व्याख्या की है, वे पाठ सूत्रप्रतियों में मिले हों या न मिले हो, तथापि वृत्तिकारअभिमत सूत्रपाठ वृत्तिअनुसार मैंने दिये हैं। इन सब बातोका सूचन चूर्णिसहित नन्दीसूत्र की पादटिप्पणीयोंमें स्थान स्थान पर किया है; चूगों, हारिभद्री वृत्ति और मलयगिरिवृत्तिमें पाठभेदोंके अलावा सूत्रोंकी और गाथाओंकी कमी-बेशी भी है, जिनका सूचन भी पाद टिप्पणीयोंमें किया हैं। अत एव सूत्रांक और सुत्रगत गाथांकमें फरक जरूर ही है, इस बातको गीतार्थ मुनिगण और विद्वद्वर्ग ध्यानमें रक्खे । चूर्णीके अनुसार सूत्रांक ११८ और सूत्रगत गाथांक ८५ है, तब हारिभद्री वृत्ति अनुसार सूत्रांक १२० और सूत्रगत गाथांक ८७ हुआ है। मूल नन्दीसूत्रकी बहुतसी प्राचीन प्रतियोंमें पाई जाती गुणरयणुजलकडयं० नगर रह चक्क पउमे० वंदामि अजधम्मं बंदामि अजरक्खिय. गोविंदाणं पि णमो० तत्तो य भूयदिन्नं० ये छह गाथायें चूर्णीकार जिनदासगणि महत्तर, लघुवृत्तिकार आचार्य श्रीहरिभद्रसूरि और बृहवृत्तिकार श्रीमलयगिरि आचार्य, इन तीनों ही व्याख्याकारोंकी व्याख्यामें नहीं हैं । इन छह गाथाओं के अतिरिक्त जिनशासनकी स्तुतिरूप णेवुइ पहसासणयं० और नेरइय देव तिथंकरा० ये दो गाथायें भी चूर्णीमें नहीं हैं, जो हरिभद्रसूरि और मलयगिरिसूरिकी व्याख्यामें पाई जाती हैं । इन सबका चूर्गीकी पादटिप्पणीयों में निर्देश किया गया है। सामान्यतया सूत्रपाठके मुद्रणविषय में मेरा यह क्रम रहा है कि जो जो व्याख्या सम्पादित की जाय उसमें उस व्याख्याकारको अभिमत सूत्रपाठ दिये जायँ । नन्दीची और नन्दीहारिभद्री वृत्तिके साथ दिये सूत्रपाठोंमें विद्वद्वर्ग को इस कथनका साक्षात्कार होगा। हारिभद्री वृत्तिकी प्रतियाँ १. आ. पति-आगमोद्धारक पूज्यपाद श्रीसागरानन्दसूरिसम्पादित एवं संशोधित मुदित आवृत्ति । जिसका प्रकाशन वि. सं. १९८४ में श्रीऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था-रतलामकी ओरसे हुआ है। २. दा. पति-पूज्यपाद आचार्य महाराज श्री विजयदानसूरीश्वरजी संशोधित । जो भाई श्री हीरालालके द्वारा वि. सं. १९८८ में प्रकाशित हुई है। ३. सं. प्रति–पाटण श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिरस्थित श्रीसंवके ज्ञानभंडारकी कागज पर लिखित प्रति । ४. वा. पति-पाटण.श्रीहेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमंदिरस्थित वाडीपार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडारकी कागज पर लिखित प्रति । सं. और वा. ये दोनों प्रतियां विक्रमको पंद्रहवीं शतीके चतुर्थ चरणमें लिखित प्रतीत होती हैं । इनके अतिरिक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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