Book Title: Munisuvrat Kavya
Author(s): Arhaddas, Bhujbal Shastri, Harnath Dvivedi
Publisher: Jain Siddhant Bhavan Aara

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Page 5
________________ [ ] से ही सराबोर होना पड़ेगा। इसके अगल बगल में भयानक और बीमत्स की महके भूल कर भी अनुभूत नहीं होती। श्रीअईहास जी गद्य-पद्य दोनों के सिद्धहस्त लेखक हैं । “पुरुदेवचम्पू" की गुरुता ने तो "वशकुमार-चरित" तथा "हर्षचरित” के गद्यों से भी बाजी मारली है। जिन्हें गद्य-पद्य का गंगा-यमुनी मेल देखना हो वे "पुरुदेवचम्पू" अवश्य देखें। आवश्यकतानुसार रसावतरण करना तो आपके बायें दायें का खेल है। ... तीर्थङ्कर देव के "मुनिसुवन" नाम को सार्थकता निम्नलिखित श्लोक में बड़ी विशदरीति से दिखलाई गई है। . "करिष्यते मुनिमखिलञ्च सुव्रतं भविष्यति स्वयमपि सुब्रतो मुनिः । विवेचनादिति विभुरभ्यधाय्यसी विडोजसा किल मुनिसुत्रताक्षरैः" (६ष्ठ सर्ग ४३ श्लो०) अब मैं सहृदय पाठको को आपकी अलङ्कार-प्रियता का परिचय निम्नलिखित तीन श्लोकों से कराता हूं। "भट्टाकलकाद् गुणभद्रसूरेः समन्तभद्रादपि पूज्यपादात । वयोऽकलङ्क गुग्णभद्रमस्तु समन्तभद्रं मम पूज्यपादम् ।।" ? भ० स० १६ श्लो. भुजंगमेष्वागमवक्रभावो भुजंगहारेऽप्यजिनानुरागः । धूयं प्रदोषानुगमो रजन्या दिनक्षयस्सोऽपि दिनावसाने ॥ ? मः स ० ३६ श्लो० रतिक्रियायो विपरीतवृत्ती रतानसाने किल पारवश्यम् । बभूव मल्लेषु गदाभिघातो भयाकुलत्वं रविचन्द्रयोश्च ।। ७ मा० ३० श्लो०॥ उल्लिखित प्रथम श्लोक में “यथासंस्थालङ्कार" का ऐसा विशद उदाहरण है कि इसे देख कर एक साधारण संस्कृत भी मुग्ध हो जायगा। उसके नीचे के द्वितीय और तृतीय श्लोक यदि पक्षात-रहित आलङ्कारिक द्दष्टि से देखे जाय तो यह अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि अहदास जीने इन दोनों श्लोकों में परिसण्यालङ्कार की विशजता दिखा. कर कधिवर बाण भट्ट की उन पंक्तियों से टक्कर लिया है जिन्हें पढ़ कर कविगण फड़क उस्ते हैं। यों तो आपका समूचा "मुनिसुव्रतकाव्य" ही रन-जड़ित अलङ्कारो से विजड़ित हैं किन्तु अपने फाध्य में अपूर्वता लाने के लिये आपका प्रयक्ष प्रशंसनीय है। अब आपके एक हास्यरस्य का निन्नलिखित पद्य पाठकों के समक्ष उपस्थित करने का मैं लोभ संघरण . नहीं कर सकता:

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