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वह आत्म-भाव में रमण करता है तथा सभी जीवों से मैत्री भाव और उनकी मंगल कामना करता है।
संथारा अथवा समाधि मरण का पच्चक्खाण करने से पहले साधक ८४ लाख जीव योनि से क्षमायाचना करता है एवं अपने आपको शुद्ध एवं सरल बनाता है। तत्पश्चात् साधक जो प्रतिज्ञा या संकल्प धारण करता है, उसके भाव इस प्रकार होते हैं
हे प्रभु ! जीवन के अन्तिम समय में मृत्यु पर्यन्त संलेखना का सेवन करता हूँ। मैं सभी प्रकार की हिंसा झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का तथा क्रोध, मान, माया, लोभ से मिथ्यादर्शन शल्य तक १८ पापों का, सभी अकरणीय कार्यों का यावज्जीवन तीन करण, तीन योग से त्याग करता हूँ। इन अठारह पापों का त्याग करके मैं यावज्जीवन तीनों अथवा चारों आहारों का त्याग करता है। इसके अलावा मैं अपने शरीर का भी त्याग करता हूँ जो शरीर मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, अनुकूल एवं प्रिय है। मैंने सदा ध्यान रखा कि इस शरीर को भूख, प्यास, रोग आदि कोई कष्ट न हो, उस शरीर पर भी ममत्व भाव का त्याग करता हूँ।
कितना मंगलमय एवं पवित्र मरण है यह, जिसे साधक सहर्ष स्वीकार करता है इसलिये इस प्रकार के समाधि मरण को 'मृत्यु-महोत्सव' की भाव पूर्ण संज्ञा दी
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