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११. शल्य चिकित्सा में मरना । १२. नीच भावों में मरना ।
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पण्डित मरण और मृत्यु- महोत्सव
भगवान महावीर ने मृत्यु को बुरा नहीं कहा । मृत्यु से भयभीत होना अज्ञान का फल है । मृत्यु कोई विकराल दैत्य नहीं है । मृत्यु मनुष्य का मित्र है । भगवान महावीर ने 'मृत्यु विज्ञान' का विशद विवेचन किया है । इन्द्रियाधीन, कषायाधीन, शोकाधीन, मोहाधीन होकर मृत्यु को प्राप्त करना उन्होंने ऐसा बताया जैसे किसी गृद्ध, वाज आदि ने किसी निरीह पशु को नोचदबोच लिया हो और उसे अपना ग्रास बना लिया है । समाधि मरण को उन्होंने श्रेष्ठ मरण बताया है । संन्यासपूर्वक और प्रभु स्मरण करते हुए मरना ही समाधि मरण आदि नामों से पुकारा जाता है ।
पण्डित मरण अथवा संथारा अंगीकार करने वाला साधक सब प्रकार की मोह-ममता को दूर करके शुद्ध आत्म-स्वरूप के चिन्तन में लीन होकर समय गुजारता है । वह संसार के सुखों की कामना, परलोक के सुखों की इच्छा, प्रतिष्ठा देखकर अधिक जीने की इच्छा, भूखप्यास रोग जनित व्याधि से घबरा कर जल्दी मरने की इच्छा तथा इन्द्रियों से भोगों की आकांक्षा नहीं करता ।
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