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स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ
के फलस्वरूप यह भी सम्भावना है कि वह मिथ्यात्व भाव में से निकल कर सम्यक्त्व भाव में आ जाये, और तब उसी जन्म अथवा निकट जन्मान्तरों में मुक्ति, निर्वाण या सिद्धत्व अर्थात आत्मिक विकास की चरमावस्था प्राप्त कर ले । विधिवत जैन मार्ग का सम्यक अवलम्वन करने से यह संभावना अधिक बलवती हो जाती है। किन्तु यह समझना भूल होगी कि सभी जैनी सम्यक्त्वी होते हैं, और सभी जैनेतर मिथ्यात्वी होते हैं ।
वस्तुतः पुस्तक में पंडितवर्य श्री श्रीचन्द चोरड़िया ने “मिथ्यात्वी का आध्यात्मिक विकास" हो सकता है और कब कब, कहां कहां, किस प्रकार किन-किन दिशाओं में और किस सीमा तक हो सकता है, इस प्रश्न का सैद्धान्तिक दृष्टि से सप्रमाण विस्तृत विवेचन किया है जिसके लिए वह बधाई के पात्र हैं | चोरड़ियाजी आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति पर निर्मित लेश्याकोश, क्रियाकोश आदि कोश ग्रन्थों के संयोजक एवं निर्माता विदद्वय स्व. मोहनलालजी बांठिया के सहयोगी रहे हैं। उन्हीं के साथ १६७२ के पर्दूषण में अपने कलकता प्रवास के समय हमारी उनसे भेंट हुई थी। उस समय उन्होंने यह पुस्तक लिखनी प्रारम्भ कर दी थी और इच्छा व्यक्त की थी कि हम उसका आमुख लिखें। अब जब पुस्तक का मुद्रण आरम्भ होगया तो उन्होंने पुनः आग्रह किया। अतएव इस आमुख के रूप में विवसित प्रश्न पर अपने भी कुछ विचार प्रगट करने का अवसर मिला, जिसके लिये हम श्री चोरड़ियाजी तथा मोहनलालजी बैद, मंत्री जैन दर्शन समिति और श्री मांगीलाल लूणियाजी उपमंत्री - जैन दर्शन समिति कलकता के आभारी हैं। यह पुस्तक जैन पण्डितों को सोचने पर विवश करेगी, कतिपय प्रचलित भ्रान्तियों के निरसन में भी सहायक होगी और प्रबुद्ध जैनेतरों के समक्ष जैन दर्शन की सार्वभौमिकता, सार्वकालीनता, वैज्ञानिकता एवं युक्तिमत्ता को उजागर करेगी।
दिनांक १२ जून, १६७७ ई ज्योति निकुंज, चारबाग लखनऊ
ज्योतिप्रसाद जैन
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