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मतिज्ञान और श्रुतज्ञान से अवधिज्ञान और मतः पर्यवज्ञान को विशेष शक्ति के कारण क्रम में ऊंचा बताया जाता है, तो भी एक अपेक्षा से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का जितना महत्त्व है उतना अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान का महत्त्वन हीं । केवलज्ञान के लिए मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की जितनी आवश्यकता है, उतनी अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान की नहीं । कोई जीव कभी भी मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के बिना केवल ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। केवलज्ञान की उत्पत्ति पूर्ववत्ती श्रुतज्ञान रूपी कारण से होना माना जाता है । किन्ही एक जीवो को सीधा ही केवल ज्ञान उत्पन्न हो सकता है। शास्त्रों में ऐसे कितने ही उदाहरण है । यों मोक्षमार्ग में अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान की कोई अनिवार्य आवश्यकता नहीं । प्रत्युत अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान से जीव को अपनी आत्मा की विशुद्धि की प्रतीति हो सकती है । अवधिज्ञान और विशेषण मनः पर्यवज्ञान आत्मा की विशुद्धि की प्रतीति हो सकती है। अवधिज्ञान और विशेषतः मनः पर्यवज्ञान आत्मा की विशुद्धितर स्थिति का द्योतक है।
क्या पंचमकाल में अवधिज्ञान नहीं हो सकता ? इस विषय में कितने ही मतांतर हैं। कइयों के मत से दाल में भी अवधिज्ञान की अत्यन्त अल्प परिमाण में शक्यता है । कइयों का मत है ऐसी कोई शक्यता नहीं । इतना तो निश्चित है कि इस काल में इस क्षेत्र में केवलज्ञान नहीं । यदि ऐसा है तो परमावधिज्ञान जो अंत मे केवलज्ञान में परिणित हो जाता है वह कहां से हो सकेगा ? अतः इतना तो निश्चित है कि इस काल में परमावधि ज्ञान नहीं है । मनः पर्यवज्ञान तो इस काल में विच्छेद हो चुका है, इस विषय में सर्व शास्त्रकार सम्मत है। क्योंकि उसे प्राप्त करने के लिए संयम की उतनी विशुद्धि और वैसी आत्म-शक्ति इस काल में ज्ञात नहीं होती ।
दर्शन-दिग्दर्शन
दिगम्वर ग्रंथ महापुराण में ऐसा वर्णन आता है कि भरत चक्रवर्त्ती को स्वप्न में चन्द्रमा परिमण्डल में घेरा हुआ दिखाई दिया। उसकी फलश्रुति में भगवान ऋषमदेव कहते है कि पंचमकाल में अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान किसी को नहीं होगा । ऐसा उल्लेख है । दूसरी और तिलोयपन्नति ग्रन्थ में कहा है कि दूःषमकाल में अमुक हजार वर्ष बाद जब जब साधुओं की गोचरी पर कर लगेगा और साधुलोग गोचरी / आहार किये बिना वह प्रदेश छोड़कर चले जाएंगे तब उनमें से किसी साधु को अवधिज्ञान होगा। अतः हजारो वर्ष बाद किसी विरल आत्मा को अवधि ज्ञान हो तो हो ।
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