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दर्शन दिग्दर्शन
है, अपने आप में एक कीर्तिमान है। उस विकास प्रक्रिया की बदौलत ही तेरापंथ धर्मसंघ को आज जैन-धर्म का पर्याय माना जा रहा है।
संघ का संतुलित विकास तभी संभव है जब समग्र धर्म-तीर्थ के चरण गतिमान हो। श्रावक सामाजिक, पारिवारिक, राष्ट्रीय दायित्व को वहन करता हुआ आत्म साधना के पथ पर अग्रसर होता है। ऐसी स्थिति में उसके भीतर मुमुक्षा-भाव का दीप जलता रह सके, यह प्रेरणा के स्नेह पर निर्भर है। यह निर्विवाद तथ्य है कि लौकिक, लोकोत्तर दोनों कर्तव्यों के निर्वहन में श्रावक समाज आधारभूत घटक हैं। वे सुरक्षित रहते हैं तो परम्परा जीवित रहती है, संस्कृति सुरक्षित रहती है। स्वयं गुरूदेव ने श्रावक सम्बोध में श्रावक के महत्त्व को उदगीत करते हुए लिखा है - श्रावक कौन?
श्रमणोपासक श्री तीर्थकर की कृति है।
यह विश्वमान्य अनुपम धार्मिक संस्कृति है।। श्रावक के लिए आगमों में श्रमणोपासक शब्द भी व्यवहत हुआ है। श्रावक श्रमणोपासक शब्द का अर्थगांभीर्य जाने बिना करणीय पथ प्रशस्त कैसे होगा? संक्षिप्त में दी गई श्रावक-श्रमणोपासक की परिभाषा को जीने के लिए जीवनभर जागरूकता की अपेक्षा है -
श्रमणों की समुपासना श्रमणोपासक नाम ।
शास्त्रों का श्रोता सजग श्रावक नाम ललाम ।। जैनेतर सम्प्रदायों में गृहस्थ के लिए ज्ञान, दर्शनचारित्र की आराधना का अनिवार्य विधान नहीं है जबकि श्रावक की भूमिका में प्रवेश करने की पहली शर्त है - प्रत्याख्यान। ज्ञान, दर्शन, चारित्र के ककहरा सीखे बिना श्रावक की जीवन पोथी मूल्यवान नहीं बन सकती। पूज्य गुरूदेव ने न्यूनतम किंतु अनिवार्य आत्मा आराधना के लिए दिशा-निर्देश देते हुए लिखा है -
न्यूनतम नवतत्त्व विद्या का सहज संज्ञान हो स्वस्थ सम्यग दृष्टि सम्यग ज्ञान का संधान हो। बिना प्रत्याख्यान श्रावक-भूमि में कैसे बढ़े ? बिना अक्षर ज्ञान जीवन ग्रंथ को कैसे पढ़े ?
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