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। स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ
यदि तात्विक दृष्टि से विचार किया जाये तो प्रज्ञा का प्रकर्ष या ज्ञान का उदभास ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से निष्पन्न होता है। श्री बांठियाजी का क्षयोपशम इस सन्दर्भ में बड़ा समुन्नत था। जैन वांग्मय में द्रव्यानुयोग का विषय अत्यन्त जटिल एवं कठिन माना जाता है। बहुत कम ऐसे विद्वान मिलते हैं, जिनका द्रव्यानुयोग पर आधिपत्य हो। यह कहते जरा भी संकोच नहीं होता कि बांठियाजी को द्रव्यानुयोग में असाधारण गति तथा प्रगाढ़ वैदुष्य था। उनके द्वारा रचित लेश्याकोश आदि जैसे विशाल ग्रन्थों से यह स्वतः सिद्ध है।
_जैन दर्शन में स्वीकृत पांच ज्ञानों में पहला मतिज्ञान है। ‘मननात्मकं मतिः' इस व्युत्पति के अनुसार मति ज्ञान मनन, अवबोधन या जानने के अर्थ में है अर्थात मति ज्ञान द्वारा एक जिज्ञासु, एक साधक किसी पदार्थ या तत्व के हार्द को स्वायत्त कर सकता है। स्वायत्त ज्ञान की अभिच्यक्ति एक पृथक विषय है, जो श्रुत ज्ञान से सम्बद्ध है। कहा गया है - 'परप्रत्यायन क्षमं श्रुतम' जो औरों को प्रतीति कराने में समर्थ हो, वह श्रुत ज्ञान है। दूसरे शब्दों मे मति ज्ञान का सम्बन्ध ज्ञप्ति तथा श्रुत ज्ञान का सम्बन्ध अभिव्यक्ति से है।
श्री बांठियाजी का मति ज्ञान की तरह श्रुत ज्ञान भी बड़ा उत्कृष्ट था। अपने अधीन या ज्ञात विषयों को बड़ी विशदता और स्पष्टता के साथ अभिव्यक्त करने का उनमें असामान्य सामर्थ्य था। बंगला तथा अंग्रेजी पर श्री बांठियाजी का असाधारण अधिकार था क्योंकि स्नातकीय अध्ययन (ग्रेजुएशन) पर्यन्त ये ही भाषायें उनका माध्यम थीं। किन्तु वे तो अदभुत नैसर्गिक प्रतिभा के धनी थे। ऐसे प्रज्ञाशील जनों के लिए न कोई विषय नया रहता है और न कोई भाषा नई रहती है। प्रयत्न द्वारा सब स्वायत्त कर लेते हैं। हिन्दी में भी श्री बांठियाजी ने भावाभिव्यक्ति का जो सामर्थ्य अर्जित किया, वह उनकी प्रतिभा और श्रम का द्योतक है।
श्री बांठियाजी की दृष्टि बड़ी पैनी थी, पकड़ बड़ी मजबूत थी, चिन्तन बड़ा गहरा था, विवेचन बड़ा सरल, सहज तथा उदबोधक था। उन्होंने बहुत लिखा, जो भी लिखा, वहां सर्वत्र यह सब दृष्टिगोचर होता है। उनके गहन चिन्तन और अन्तः स्पर्शी वैदुष्य के समक्ष सहज ही एक जिज्ञासु सिसार्धायिषु किंवा मुमुक्षु का मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है।
श्री बांठियाजी सही अर्थ में एक निष्काम कर्मयोगी थे। जो जरा भी फल की
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