Book Title: Maro Swadhyaya
Author(s): Divyaratnavijay
Publisher: Shraman Seva Parivar

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Page 14
________________ पादांगुलिनमि रक्षेच्छ्रीनेमिश्चरणद्वयम् । श्रीपार्श्वनाथः सर्वांगं, वर्धमानश्चिदात्मकम् ॥१७॥ पृथिवी-जल-तेजस्क-वाय्वाकाशमयं जगत् । रक्षेदशेषपापेभ्यो, वीतरागो निरंजन: ॥१८॥ राजद्वारे श्मशाने च, संग्रामे शत्रुसंकटे । व्याघ्र-चौराग्नि-सर्पादि, भूतः-प्रेत-भयाऽऽश्रिते ॥१९॥ अकाले मरणे प्राप्ते, दारिद्यापत्समाश्रिते । अपुत्रत्वे महादुःखे, मूर्खत्वे रोगपीडिते ॥२०॥ डाकिनी-शाकिनीग्रस्ते, महाग्रहगणादिते । नद्युतारेऽध्ववैषम्ये, व्यसने चापदि स्मरेत् ॥२१॥ प्रातरेव समुत्थाय, यः स्मरेज्जिनपंजरम् । तस्य किञ्चिद् भयं नास्ति, लभते सुखसम्पदः ॥२२॥ जिनपंजरनामेदं, यः स्मरेदनुवासरम् । कमलप्रभराजेन्द्रश्रियं स लभते नरः ॥२३॥ प्रातः समुत्थाय पठेत्कृतज्ञो, यः स्तोत्रमेतज्जिनपञ्जराख्यम् । आसादयेत्स कमलप्रभाख्याम्, लक्ष्मी मनोवाञ्छितपूरणाय ॥२४॥ श्रीरुद्रपल्लीयवरेण्यगच्छे, देवप्रभाचार्यपदाब्जहंसः । वादीन्द्रचूडामणिरेष जैनो, जीयाद् गुरुश्रीकमलप्रभाख्यः ॥२५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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