Book Title: Maro Swadhyaya
Author(s): Divyaratnavijay
Publisher: Shraman Seva Parivar
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दक्षिणे मदनद्वेषी, वामपार्वे स्थितो जिनः । अंगसंधिषु सर्वज्ञः, परमेष्ठी शिवंकरः पूर्वाशां च जिनो रक्षेदाग्नेयीं विजितेन्द्रियः । दक्षिणाशां परब्रह्म, नैऋतिं च त्रिकालवित् पश्चिमाशां जगन्नाथो, वायवीं परमेश्वरः । उत्तरां तीर्थकृत्सर्वामीशानी च निरंजन: पातालं भगवानहन्नाकाशं पुरुषोत्तमः । रोहिणीप्रमुखादेव्यो, रक्षन्तु सकलं कुलम् ऋषभो मस्तकं रक्षेदजितोऽपि विलोचने । सम्भवः कर्णयुगलं, नासिकां चाभिनंदन:
ओष्ठौ श्रीसुमती रक्षेद् दन्तान्याप्रभो विभुः । जिह्वां सुपार्श्वदेवोऽयं, तालुश्चन्द्रप्रभाभिधः कण्ठं श्रीसुविधी रक्षेद्, हृदयं श्रीसुशीतलः । श्रेयांसो बाहुयुगलं, वासुपूज्यः करद्वयम् अंगुलीविमलो रक्षेदनन्तोऽसौ नखानपि । श्रीधर्मोप्युदरास्थिनि, श्रीशान्ति भिमण्डलम् श्रीकुंथुर्गुह्यकं रक्षेदरो लोमकटितटम् । मल्लिरुरुपृष्ठवंशं, जंघे च मुनिसुव्रतः
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