Book Title: Maro Swadhyaya
Author(s): Divyaratnavijay
Publisher: Shraman Seva Parivar
View full book text
________________
॥ श्री वज्रपंजर स्तोत्र ॥
॥१॥
॥२॥
॥३॥
॥४॥
परमेष्ठिनमस्कारं, सारं नवपदात्मकं । आत्मरक्षाकरं वज्रपञ्जराभं स्मराम्यहम् अनमो अरिहंताणं, शिरस्कं शिरसि स्थितम् ।
नमो सव्वसिद्धाणं, मुखे मुखपटं वरम् मनमो आयरियाणं, अङ्गरक्षाऽतिशायिनी । अनमो उवज्झायाणं, आयुधं हस्तयोदृढम् मनमो लोए सव्वसाहूणं, मोचके पादयोः शुभे । एसो पंचनमुक्कारो, शिला वज्रमयी तले सव्वपावप्पणासणो, वप्रो वज्रमयो बहिः । मंगलाणं च सव्वेसिं खादिराङ्गारखातिका स्वाहान्तं च पदं ज्ञेयं, पढमं हवइ मंगलं । वप्रोपरि वज्रमयं, पिधानं देहरक्षणे महाप्रभावा रक्षेयं, क्षुद्रोपद्रवनाशिनी । परमेष्ठिपदोद्भूता, कथिता पूर्वसूरिभिः यश्चैवं कुरुते रक्षा, परमेष्ठिपदैः सदा । तस्य न स्याद् भयं व्याधिराधिश्चाऽपि कदाचन
॥७॥
॥८॥
. २. Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 244