________________
दिगंबर जैन.
___"अहाहा! आजे खरेखलं म्हारुं भाग्य उदयमां आव्युं" एक तरुणे एक तरुणीने अटकावी कडं.
"हं, खबरदार म्हारा शरीरने अडक्या तो" तरुणी स्हेज गुस्साना आवेशमां बोली, परंतु ते तरुण एटलो काबेल हतो के तेणीना गुस्सा तरफ दर कार न करतां बोल्यो:
“आवी सोना सरखी आवेली तक हुं जवा दईश एम तने लागे छे ? प्यारी, आज केटलाक दिवसथी हारो जोग जोई रह्यो हतो अने सोगनपूर्वक कहीश के हजु बीजा केटलाक दिवस त्हारो मेलाप न थयो होत, तो हुं जीवतो रही शकत नही!"
"बस करो आ तमारुं मूर्खपणुं ! पारकानी स्त्री साथे आq बोलतां शरम पण नथी आवती ?" तरुणीए उत्तर आप्यो.
आ प्रसंगे तेपीए गुस्सा, एवं बाह्य स्वरूप बताव्यु हतुं के बीजो कोई साधारण लुच्चो तो तुर्तज त्यांथी रवाना थई जात, परंतु आ तरुण-तेवा कामनो काबेल तरुण स्त्रीचरित्रना लक्षणो जाणतो होवाथी न डरतां निडरपणे कहेवा लाग्यो:
"रुपसुंदरी ! आवा चाळा करवाथी शो लाभ ? हारा आ उपरना गुस्साथी हुं ही जईश एम रहने लागे छे ? जो हने तेमज लागतुं होय तो ते त्हारी भ्रमणाज छे अने ते हारे सत्वर कादी नांखवी जोईए. व्हाली ! त्हारी क्रोधीष्ट