Book Title: Madhyam vrutti vachuribhyamlankrut Siddhahemshabdanushasan Part 01
Author(s): Kshamabhadrasuri, Ratnajyotvijay
Publisher: Ranjanvijayji Jain Pustakalay

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Page 6
________________ पुनः प्राकट्य के प्रांगण में जगत में अनादिकाल से व्यवहार धर्म को प्रधानता प्राप्त हुई है / भाषा व्यवहार का मुख्य कारण है / भाषा के अनुसार ही व्यक्ति का मूल्यांकन होता है / भाषा की नीव व्याकरण है / दुनिया में संस्कृत व्याकरण सबसे अग्रेसर है, क्योंकि शब्द की अर्थानुसार व्युत्पत्ति अन्यत्र पूर्ण रुप से प्राप्त नहि होती, इस व्याकरण के नियम हमेशा अटल रहे है / "भवति" का अर्थ जो हजार साल पहेल था वहीं आज है / आर्य संस्कृति के सभी ग्रंथ प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में पाये जाते है। अतःपूर्व महर्षिओ के हार्द को समझने के लिये व्याकरण अत्यंत आवश्यक बनता है / . सिद्धराज की विनंती व इच्छा से कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यने 1,25,000 श्लोक प्रमाण व्याकरण की रचना की / उसमें से. काल राक्षस न्यास का बडा भाग कवल कर गया / लेकिन आज भी लघुवृत्ति। मध्यमवृत्ति / बृहद्वृत्ति विद्यमान है / उसके आधार से अनेक संस्था में व्याकरण का पठन पाठन चल रहा है / लेकिन लघुवृत्ति से पूर्वापर का संकलन मध्यमबुद्धिवर्ग को दुःशक है और बृहद्वृत्ति में प्रवेश शक्य नहि है / इसलिए ज्यादातोरसे मध्यमवृत्ति की मांग रहती है / . इस ग्रंथ के प्रथम प्रकाशन हेतु विद्वद्वर्य क्षमाभद्रसूरीश्वरजीने अज्ञातकृत अवचूरि के साथ प्रारंभ किया था / लेकिन अफसोस कार्य काल दीर्घ बन गया. परन्तु आयु काल दीर्घ न बन सका / आचार्यश्री अपूर्ण कार्य को छोडकर स्वर्गवासी बन गये / बाद में विक्रमविजयजीने कार्य पूर्ण करके प्रकाशित किया। प्रकाशित पुस्तके अल्प संख्या में तथा जीर्ण अवस्था में है / पाठक वर्ग की संख्या दिन प्रतिदिन बढती जा रही है / पं. वसंतलाल (महेसाणा), पं. चन्द्रकान्तभाई (पाटण) एवं अन्य विद्वान वर्गने इस ग्रंथ को पुनः प्रकाशन करने हेतु प्रेरणा दी / इन सभी बातो को ध्यान में रखकर मुनिश्रीने शंकाशील स्थानो का अन्य अवचूरि व बृहद्वृत्ति एवं हस्तप्रतो के आधार से आंशिक स्पष्टीकरण करके पुनः प्रकाशन का कार्य हाथ में लिया / इस ग्रंथ में 10 पाद समाविष्ट है / अग्रिम अध्याय का प्रकाशन हेतु प्रयास जारी है / प्रभु से प्रार्थना है कि शीघ्र ही प्रकाशन कार्य सिद्ध बनें / - अन्त में इतना ही चाहता हूं कि पाठक वर्ग व्याकरण से भाषा शुद्धि ओर परंपरा में आत्मशुद्धि को प्राप्त करें / आ.वि. रत्नाकरसूरि

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