Book Title: Lonkashah Charitam
Author(s): Ghasilalji Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti

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Page 436
________________ चतुर्दशः सर्गः सर्वासु तावद्गतिषु प्रलभ्यं प्रलभ्यते प्राणभृताऽथ तेन / आसन्न अव्येन च संज्ञिनैष जीवेन सम्यक्त्वमिदं पवित्रम् // 29 // __अर्थ प्राप्त करने योग्य यह सम्यग्दर्शन प्रर्याप्त संज्ञी, आसन्न भव्य पंचेन्द्रिय जीवों को चारों गतियों में प्राप्त होता है. // 29 // પ્રાપ્ત કરવા યોગ્ય આ સમ્યફદર્શને પર્યાપ્ત, સંશી, આસન્ન ભવ્ય પંચેન્દ્રિય જીવને ચારે ગતિમાં પ્રાપ્ત થાય છે. ર૯ संसारभोगेषु न तृप्तिरस्य जीवस्य तावच्च भवेच यावत् / उदेति नेदं भवछेदकारि स्वान्ते निशान्ते मणिदीपिकेव // 30 // अर्थ-इस जीव को संसार के भोगों से तब तक तृप्ति नहीं होती कि जब तक भय का भेद करने वाला यह सम्यक्त्व गृह में मणिदीपक के समान हृदय में उत्पन्न नहीं हो जाता है // 30 // આ જીવને સંસારના ભેગોથી ત્યાં સુધી નિવૃત્તિ થતી નથી કે જયાં સુધી ભવનો ભેદ કરનાર આ સમ્મફત ઘરમાં મણિના દીવાની માફક હૃદયમાં ઉત્પન્ન થતું નથી. 3 अनायनन्तो भव एष तस्य नाऽापि येनेदमनर्व्यरत्नम्।। नावाप्स्यते संसृति संततीनां, विच्छेदने दातृसमं यतोऽदः // 31 // ___ अर्थ-संसार की परम्परा को छेदने में अत्यन्त तीक्ष्ण कुठार के जैसे इस अमूल्य सम्यग्दर्शन व रत्न को जिसने प्राप्त नहीं किया है और आगे भी जो इसे प्राप्त नहीं करेगा ऐसे जीव का संसार कभी भी सान्त नहीं हो सकता है // 31 // સંસારની પરંપરાને છેદવામાં અત્યંત તીણ-ધારદાર કુહાડા જેવા આ અમૂલ્ય સમ્યફદર્શનરૂપ રત્નને જેણે પ્રાપ્ત કરેલ નથી. અને આગળ પણ જે તેને પ્રાપ્ત કરશે નહીં એવા જીવને સંસાર કયારેય પણ સાન્ત થઈ શકતો નથી. 31 प्राप्तं तदेतत्खलु रक्षणीयं दोषैरतीचारचयैश्च भव्यैः / एभिर्यथेदं मलिनं भवेन्नो तथैव कृत्यं करणीयमत्र // 32 // . अर्थ-हे भव्यो ! यदि सम्यग्दर्शन तुम्हें प्राप्त हो गया हो तो तुम 25 दोष 5 पांच अतिचारों से बचाकर इसे रखना और ऐसा ही कार्य करना कि जिससे यह इनके द्वारा मलिन न किया जा सके. // 32 //

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