Book Title: Lonkashah Charitam
Author(s): Ghasilalji Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti

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Page 434
________________ चतुर्दशः सर्गः देवे गुरौ धर्मधियश्च धर्मे यास्ति प्रतीति भववारिणी सा। - खड्गस्थिताम्मोवन्निश्चला सैवास्तीह सम्यक्त्वमिति प्रधार्यम् // 22 // ___ अर्थ-धर्म बुद्धि वाले जीव की देव, धर्म और गुरु पर जो तलवार की धार के पानी के समान अडिग प्रतीति-विश्वास है वही सम्यक्त्व है. यह प्रतीति ही जीव के संसार को हटाने वाली है ऐसा पक्का समझना चाहिये. // 22 // ધર્મ બુદ્ધિવાળા જીવની દેવ, ધર્મ અને ગુરૂ પર જે તલવારની ધારના પાણી સરખી જે અડગ પ્રતીતિ–વિશ્વાસ છે એજ સમ્યકત્વ છે. એ પ્રતીતિ જ જીવને સંસારથી મુક્ત કરાવનારી છે, તેમ નિશ્ચયપૂર્વક સમજવું જોઈએ. રા मुक्त्यङ्गनासद्मनि गन्तुभीहा यद्यस्ति ते रत्नमिदं गृहाण / तदासधिष्ण्यस्य यतस्तदेतन्निः श्रेणिकाऽऽद्या च दृढाह्यना // 23 // ___अर्थ-हे आत्मन् ! यदि तुम मुक्तिरूपी अङ्गाना के महल में जाना चाहते हो. तुम इस रत्न को ग्रहण करो. क्यों कि यह उसके निवास भवन की सबसे पहिली मजबून कीमती सीढी है // 23 // આત્મા ! જો તું મુક્તિરૂપી અંગનાના મહેલમાં જવા ચાહતે હે તે તું આ રત્નને ગ્રહણ કર, કેમકે–આ તેના નિવાસ ભવનની સૌથી પહેલી અને મજબૂત નિસરણી છે. રહા सम्यक्त्तलाभेन विना न बोधे वृत्ते च सम्यक्त्वमथाञ्चतीति / सम्यक्त्वसंस्पर्शनमात्रतो हि जीवः परीतं स्वभवं करोति // 24 // .' अर्थ-सम्यक्त्व की प्राप्ति के विना ज्ञान में एवं चारित्र में निर्दोषता नहीं आती है जिस जीव ने सम्यक्त्व का एक बार भी स्पर्शकर लिया है ऐसा जीव अपने संसार को परिमित कर लेता है // 24 // સમ્યકત્વની પ્રાપ્તિ વિના જ્ઞાન અને ચારિત્રમાં નિર્દોષપણું આવતું નથી. જે જીવે સમ્યકત્વનો એક વાર પણ સ્પર્શ કરી લીધો છે, એવો જીવ પિતાના સંસારને પરિમિત કરી લે છે. રજા सम्यक्त्वशुद्धः खलु जीव एषः न दुष्कुलं गच्छति नापमायुः / बध्नाति तिर्यगति मेति नापि श्वभ्रं न दारिद्रयदशावशः स्यात् // 25 // अर्थ-सम्यग्दर्शन से शुद्ध हुआ यही जीव मर कर दुष्कुल में जन्म नहीं लेता है, अल्प आयु का बन्ध नहीं करता है. न मरकर तिर्यग्गति में जाता हैऔर न नरकगति में जाता है / न यह दरिद्री होता है // 25 //

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