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- प्रस्तावना -
मूर्ति और मंदिर आर्य संस्कृतिकी धरोहर है, आर्य देशका हर मनुष्य चाहे किसी भी धर्मका हो, कहीं न कहीं मंदिर और मूर्ति से जुडा हुआ है।
और यही श्रध्दा और भक्ति उसको दुःखमें टूटने नहीं देती, सुखमें छकने नहीं देती । जैन धर्ममें भी मूर्तिपूजा श्रावकधर्मका एक महत्वका अंग है । परंतु बडे दुर्भाग्यकी बात रही है कि पिछले कुछ वर्षोंमें मूर्तिपूजाका जोरशोर से विरोध हुआ है।
आर्य संस्कृति को नष्ट करने के षडयंत्रका एक यह भी तरीका है । 'मूर्ति ताकतहीन हैं ।'
'पूजा करने में हिंसा है - पूजा करना पाप है।' 'पूजा धर्मशास्त्रोमें नही बताई है।'
ऐसा भ्रामक प्रचार जोरशोरसे किया जा रहा है। लोगो को भरमाया जा रहा है। इसी कारण कई लोगो ने मंदिर और मूर्तिसे अपना नाता तोड दिया है। जो पूजा कर रहे है उनकी श्रध्दा भी डगमगाने लगी है। उनके मनमें भी शंका पैदा होने लगी है।
ऐसी परिस्थितिमें वास्तविकता क्या है, यह समझना जरुरी बन गया है और इसीका यह प्रयास है ।
हमारा आशय किसी संप्रदाय का खंडन करने का नहीं है । किन्तु सिध्दांतो का प्रतिपादन और सत्यकी रक्षा करने का है । वास्तविकता समझाने का है । प.पू.आ.भ. अभयशेखरसूरीश्वरजी म.सा. बडे ही तार्किक विद्वान है, आपने तर्क आगम और इतिहास के आधार पर मूर्तिपूजा का प्रतिपादन इस लेख में किया है।
वाचकों को सत्य क्या है, इसकी समझ सहजता से प्राप्त हो जायेगी । किन्तु इसलिये जरुरी है कि साम्प्रदायिक कदाग्रह का त्याग करके मध्यममार्गी बुध्दिसे इस लेखका पठन एवं मनन करें ।
अंतमें परमात्माकी द्रव्य और भाव पूजा के द्वारा आप स्वयं परमात्मा बनें यही शुभकामना हैं ।
प्रकाशक