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क्योंकि वे जानते हैं कि मंदिरमें पूजा करनेवाले श्रध्दालुओं को दान के शुभ भाव सरलतासे उत्पन्न हो जाते हैं।
देखिए, तेरहपथी संप्रदाय के आचार्य तुलसी क्या कहते हैं -
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'मैं तो हमेशा जाता हूँ मंदिरोमें। अनेक स्थानो पर प्रवचन भी किया है। आज भीनमालमें भी पार्श्वनाथ मंदिरमें गया । स्तुति गाई । बहुत आनंद आया ।'जैन भारती वर्ष ३१, अंक १६ - १७, पृष्ठ - २३, दि. २०-७-८३ तेरहपंथ अंक....... भला, परमात्मा की प्रतिमा शुभ भाव उत्पन्न करने में समर्थ है, इसके लिये इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है ?
वास्तविकता यह है कि मूर्तिका विरोध करनेवाला कोई भी समाज या कोई भी संस्कृति, एक या दूसरे रुपमें स्वयं मूर्ति का अस्तित्व (स्थापनाको) मानता ही है ।
अपने माता-पिता की प्रतिकृती (फोटो) कौन नहीं रखता ?
उनके दर्शन से यदि कृतज्ञताका भाव उत्पन्न होता है, तो परमात्मा की प्रतिमा के दर्शन से भक्ति के भाव क्यों नहीं उत्पन्न होंगे ? सारांश यह है कि प्रतिमा शुभ भाव जाग्रत करने में समर्थ है और इसीलिये उसकी पुजामें लाभ ही लाभ है ।
प्रश्न
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माता- -पिता के प्रति कृतज्ञता - यह तो एक सांसरिक प्रक्रिया है। जबकि पूजा एक धार्मिक क्रिया है । धार्मिक क्रिया में तो हिंसा नहीं करन चाहिएन ?
उत्तर : ऐसा कहनेवाले आचार्य भगवंतोकी भी समाधि और छत्रीयाँ बनी हुई है। देखिए -
जैतारण (जि. पाली) में मरुधर केशरी श्री मिश्रीमलजी म.सा. की समाधि है ।
जयपुरमें जयाचार्य की छत्री है, उसमें उनके पगलिये हैं ।
लुधियानामें रुपचंद्रजी म. की समाधि है ।
जगराँवमें फूलचंदजी म.की समाधि है ।
चिंचण में संत बालजी की समाधि है ।
क्या यह समाधि / छत्री बनाने में हिंसा नहीं हुई होगी ?
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