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प्रतिमा की पूजा तो अनावश्यक है, क्योंकि मात्र स्तुति-भजनसे भी
भक्ति भाव उत्पन्न हो सकते हैं । उत्तर : ऐसे तो मात्र किताबों से ज्ञानप्राप्ती हो सकती है। घरमें सामायिक हो सकती है। फिर स्थानक का निर्माण भी अनावश्यक होगा और उसकी हिंसा भी अनावश्यक होगी। प्रश्न : नहीं, क्योंकि कई बार किताबों में से जो ज्ञानप्राप्ती नहीं होती, वह
साक्षात् प्रवचन श्रवण से होती है । इसलिये स्थानक का निर्माण
आवश्यक है। उत्तर : तो कई बार मात्र स्तुति - भजन से जो भक्तिभाव उत्पन्न नहीं होते, वह प्रतिमा की विविध प्रकारकी पूजा, संगीत, नृत्य, ताली बजाना, जयजयकार करना, नारा लगाना आदि से उत्पन्न होते है। इसलिये यह सब भी आवश्यक ही है।
और यह भी सोचो कि स्थानक जरुरी है तो तैयार मकान क्यों नहीं लेते ? नया मकान बनाने की हिंसा अनावश्यक है। प्रश्न : तैयार मकान कहाँ हो, कैसा हो, धर्मक्रिया के लिये अनुकूल हो या
नहीं, यह सब समस्याएँ आती है। अनुकूल जगह पर, अनुकूल लंबाईचौडाई वाला, पर्याप्त रोशनी और हवा वाला अच्छा मकान हो तो धर्मक्रियामें अनुकूलता बढेगी, ज्यादा लोग लाभ लेंगे। इसलिये नये
मकान की हिंसा भी आवश्यक है। उत्तर : मतलब तो यही हुआ कि जहॉ लाभ ज्यादा है, वहाँ पर हिंसा होते हुए भी वह धर्म ही है, पाप नहीं है, ऐसा मानना ही पडेगा।
तो मात्र स्तुति-भजन से जो भाव उत्पन्न होते है, उससे साथ में पुजा करने से ज्यादा भक्ति-भाव उमडते है, इसलिये पुजा भी धर्म ही है, अगर ऐसा नियम नहीं मानेंगे तो फिर साधर्मी भोजोमें भी मात्र दाल और रोटी दो ही चीज बनानी चाहिए। क्योंकि मिठाई जरुरी नहीं होती। यदि साधर्मी की भक्ति के लिये विविध प्रकारका खाना बनाना यह पाप नहीं है, तो परमात्मा की विविध प्रकारकी भक्ति करने में पाप क्यों माना जा सकता है ?
अब इस बात पर विचार कीजिये, कि एक श्रावक के हाथ-पैर विष्टा (मल-मूत्र) से सने हुए है। अब उन्हें सामायिक करने की इच्छा हुई। उसके लिये उन्होंने हाथ-पैर धोये
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