Book Title: Kumarpal Pratibodh
Author(s): Somprabhacharya, Jinvijay
Publisher: Central Library
View full book text
________________
प्रस्तावः ]
सामायिकत्रते सागरचंद्र- कथा |
तं वयणमसंबद्धं वोत्तुं बद्धं अणेण मृयत्तं । सो वि मरिऊण पच्छा सग्गे तत्थेव उपपन्नो || चविऊण खंद-जीवो जाओसि तुमं नरिद ! जं तुमए । चत्तो अणत्थदंडो तं पत्ता एरिसी रिद्धी ॥ चविऊण रुद्द जीवो सेणकुमारो इमो समुध्यन्नो । पत्तो इमो वि रिद्धिं अणत्थदंड व्वय-वसेणं ॥ केवलमिमिणा विहियं जं पुव्व भवम्मि किं पि मोहरियं । तव्वसओ विहिओ देवयाइ वायावहारो से ॥ इत्थंतरम्मि गुरुणो तव-प्पभावेण पडिहय- प्पसरा । सावंतरी रडती नट्ठा मुत्तूण तं कुमरं ॥ तो जाय- जाइसरणा नमिऊण गुरुं दुवेवि जंपंति । मुणि-नाह ! सव्वमेयं सच्चं तुमए जमुवइहं ॥ थेवं पि हुदुच्चरियं विवाग- विरसं ति मुनियमम्हेहिं । ता करिय रज्ज-सुत्थं काहामो संजम-ग्गहणं ॥
अह गुरुणा वागरि मणुयत्तं दुल्लहं चलं जीयं । विसया विसं व विसमा दुग्गइ-गमणं विणा धम्मं ॥ इय जाणिऊण जुज्जइ वियक्त्वणं खणं पि न पाओ । ते पणमिण सूरिं निय-गेहमुवागया दोवि ॥ रन्ना भणिओ कुमरो कुरु रज्जमहं तु संजमं काहं । भणइ कुमरो न रज्जं करेमि अणुभूय - पाव-फलो ॥ तो पव्वइया दुन्नि वि रज्जं दाऊण भागिणेयस्स । कय तिव्व तवा मरिडं कमेण सग्गं सिवं च गया । इति तृतीयगुणवते पुरुषचंद्रकथा |
जं समणस्स व सावज्ज-जोग-वज्रणमरत्त- दुट्ठस्स । तं सम-भाव-सरूवं पढमं सिक्खा वयं बिंति ॥ जो राग-दोस-रहिओ गहिउँ सामाइयं न खंडेइ । सो सावओ वि साहइ सागरचंदो व्व पर - लोयं ॥ इह जंबुदीव-भरहे सग्गो व्व सुरट्ठ-मंडलो अस्थि । जत्थ अमर व्व मणुया रमणीओ अच्छराओ व्व ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
३७१
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564