Book Title: Kirti Kaumudi tatha Sukrut Sankirtan
Author(s): Someshwar Mahakavi, Arisinh Thakkur Kavi, 
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 11
________________ प्रासंगिक वक्तव्य स्व० मुनिवर्य्य श्री चतुरविजयजी महाराज द्वारा संपादित और प्रकाशित 'सुकृत संकीर्तन' काव्य के प्रास्ताविक रूपमें, ख० विद्वान् चिमनलाल डा. दलाल ( गायकवाड ओरिएन्टल सीरीझ, बडौदा, के मूल प्रतिष्ठापक ) ने, ग्रन्थपरिचयात्मक छोटासा इंग्रेजी वक्तव्य लिखा था, उसको भी हमने इसके साथ संक-लित कर देना उचित समझ कर, वैसा किया है । इस वक्तव्य में वस्तुपाल कीर्तिकलापोंका वर्णन करने वाली समसामयिक जितनी रचनाएं, उपलब्ध हैं, उनका संक्षिप्त परिचय दिया गया है । महामात्य वस्तुपालके जीवन और कार्योंसे संबद्ध जितनी समकालीन साहित्यिक कृतियो उपलब्ध होती हैं उनका संक्षिप्त परिचय, हमने इस ग्रन्थमालाके ४ थे ग्रन्थके रूपमें प्रकाशित ' धर्माभ्युदय महाकाव्य ' के किंचित् प्रास्ताविकमें लिखा है । उससे संबद्ध 'सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी' आदि वस्तुपालकी प्रशस्त्यात्मक रचनाओंका तथा उसके बनाये हुए मन्दिरों और मूर्तिओंके जितने शिलालेख अभी तक ज्ञात हुए हैं उन सबका भी, एक संग्रह ग्रन्थ, इसी ग्रन्थमालाके ५ वें ग्रन्थके रूपमें प्रकट किया गया है I ५ पहले, प्रस्तुत काव्य-द्वय भी उसी संग्रहके अन्तर्गत संकलित रूपमें प्रकट कर देनेका विचार रहा और तदनुसार इसका मुद्रण कार्य भी कराया गया । परंतु पीछेसे प्रो. काथवटे लिखित 'कीर्तिकौमुदी' की इंग्रेजी प्रस्तावना और डॉ. ब्युहलर लिखित 'सुकृत संकीर्तन' काव्यका विशिष्ट परिचायक बहुमूल्य निबन्धका इंग्रेजी अनुवाद भी, इसमें संकलित कर देनेके विचारसे, प्रस्तुत ग्रन्थ को, अब ग्रन्थमालाके ३२ वें ग्रन्थके रूपमें, पृथक् प्रकट किया जा रहा है । 'धर्माभ्युदय महाकाव्य ' ' सुकृतकीर्तिकल्लोलिनी आदि वस्तुपाल - प्रशस्तिसंग्रह ' तथा प्रस्तुत 'कीर्तिकौमुदी तथा सुकृतसंकीर्तन काव्य द्वय ' - इन तीनों ग्रन्थोंका संपादन कार्य विद्वदूरत्न मुनिमहोदय - श्री पुण्यविजयजी महाराजने किया है और इसके लिये हम इनके प्रति, अपना पुनः पुनः सादर कृतज्ञ भाव प्रकट करना कर्तव्य समझते है । " महावीर जन्मदिन, चैत्र शुक्ला १३, सं. २०१७ ता. ३० मार्च, १९६१, भारतीय विद्याभवन, बंबई } - आभार प्रदर्शन - इस ग्रन्थके प्रकाशनमें जो द्रव्य व्यय हुआ है उसका अर्द्ध भाग भारत सरकारने देनेकी उदारता प्रकट की है, अतः इसके लिये हम भारत सरकारके प्रति अपना सादर आभार प्रकट करते हैं । Jain Education International - मुनि जिनविजय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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