Book Title: Kirti Kaumudi tatha Sukrut Sankirtan
Author(s): Someshwar Mahakavi, Arisinh Thakkur Kavi, 
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 10
________________ 'प्रासंगिक वक्तव्य गूर्जर महामात्य वस्तुपालकी कीर्तिको काव्यबद्ध करनेका जिन कवियोंने प्रयत्न किया है उनमें राजपुरोहित कवि सोमेश्वर और ठकुर अरिसिंह मुख्य हैं। कवि सोमेश्वरने कीर्तिकौमुदी नामक काव्य रच कर और अरिसिंहने सुकृतसंकीर्तन काव्य बना कर, वस्तुपालकी यशःकीर्तिको युगान्त तक स्थिर रखनेका सत्प्रयत्न किया है। कीर्तिकौमुदी काव्यका कर्ता कवि सोमेश्वर सुप्रसिद्ध व्यक्ति है । वह वस्तुपालका अनन्य मित्र और राजपुरोहित था । वस्तुपालके गुणोंका वह बहुत अनुरागी और प्रशंसक था । वस्तुपालकी युद्धवीरता और दानवीरता का वह प्रत्यक्ष साक्षी था, इसलिये उसके काव्यकी गुणवत्ताका महत्त्व बहुत है। कविता की दृष्टिसे की यह काव्य बहुत उच्च कोटिका है। इस काव्यका, बहुत पहले (सन् १८८३ में) अहमदाबादके गुजरात कालेजके संस्कृतके प्रोफेसर १. वी. काथवटे नामक विद्वान्ने संपादन कर 'बॉम्बे संस्कृत सीरीझ' नामक ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशन किया था। प्रो. काथवटेने इसकी भूमिका रूपसे एक बहुत विस्तृत इंग्रेजी प्रस्तावना लिखी, जिसमें काव्यगत बातोंका विस्तृत ऊहापोह किया है। प्रो. काथवटे संपादित यह पुस्तक अब अलभ्य है। इसलिये इसका पुनर्मुद्रण करनेकी दृष्टिसे प्रस्तुत प्रकाशन किया गया है। मूल ग्रन्थके संशोधनमें कुछ अन्य प्राचीन हस्तलिखित पोथियां भी और मिल आईं, इसलिये इसका यह प्रकाशन अधिक शुद्ध हो गया है। इसके साथ, कवि अरिसिंह विरचित सुकृतसंकीर्तन काव्य भी सम्मिलित कर दिया है। क्यों कि ये दोनों काला, वर्णन और वस्तुकी दृष्टिसे, परस्पर बहुत कुछ साम्य रखते हैं। . 'सुकृतसंकीर्तन' काव्यकी एक प्राचीन हस्तलिखित प्रति, जब स्व० जर्मन महाविद्वान् डॉ. ब्युहलरको मिली तो वे इसको देख कर बहुत आकृष्ट हुए और इस पर उन्होंने जर्मन भाषाके एक सप्रसिद्ध साहित्यिक जर्नल में, बहुत बड़ा निबन्ध लिख कर प्रकट किया। नेल में, बहुत बडा निबन्ध लिख कर प्रकट किया। उस निबन्ध के महत्त्वको देख कर, इ. एच्. बर्जेस नामक इंग्रेज विद्वान् ने, उसका इंग्रेजी अनुवाद कर, इन्डियन एन्टीक्केरी नामक सुप्रसिद्ध पत्रिकामें प्रकट किया। पर मूल संस्कृत काव्य कहीं प्रकट नहीं हुआ था । इसलिये स्वर्गवासी मुनिवर श्री चतुरविजयजी महाराजने, इसकी प्राचीन हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त कर, भावनगर की जैन आत्मानन्द सभा द्वारा प्रकाशित होने वाली 'आत्मानन्द जैन ग्रन्थमाला' के एक ग्रन्थके रूपमें प्रकाशित किया। यह प्रकाशन भी अब अप्राप्य है, अतः इसका पुनर्मुद्रण भी इसके साथ कर देने का हमारा विचार हुआ। इस प्रकार इसका पुनः प्रकाशन करनेकी हमारी इच्छाका मुनिवर्य श्री पुण्यविजयज़ी महाराजने सहर्ष स्वीकार कर, अपने खर्गीय गुरुमहाराजके संपादनको सुप्रतिष्ठित किया । इस प्रकार 'कीर्ति कौमुदी' और 'सुकृत संकीर्तन' इन दोनों काव्योंका संयुक्त प्रकाशन कर देना जब निश्चित हुआ, तो हमारे मनमें इन दोनों काव्योंके परिचयस्वरूप जो उक्त दो इंग्रेजी निबन्ध लिखे गये हैं, उनको भी इसमें सम्मिलित करना अधिक उपयुक्त लगा। क्यों कि वे दोनों निबन्ध अब अप्राप्य हैं; और उन निबन्धों विद्वान् लेखकों द्वारा जिस परिश्रम और जिस अध्ययनके फल स्वरूप वे प्रौढ निबन्ध लिखे गये हैं, सर्वथा संरक्षणीय और सदैव पठनीय हैं। अतः हमने उन दोनों विशिष्ट निबन्धोंको भी यथावत् इस प्रकाशनमें मुद्रित कर दिये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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