Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Author(s): Arunvijay
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 12
________________ धारण करते हुए भटक रहे हैं। न मालूम कब छुटकारा होगा ? कभी सद्गति में तो कभी दुर्गति में इस तरह परिभ्रमण चलता रहता है। सद्गति और दुर्गति १-देवगति } २ सद्गति मनुष्य गति→४ - - तिर्यंच गति-३ २-नरकगति } २-दुर्गति इसी स्वस्तिक में बताई गई ४ गतियों में २ सद्गति है और २ दुर्गति है। स्वस्तिक के दोनों तरफ जहां→ तीर के निशान दिए हैं वहां से स्वस्तिक को आधा कीजिए। ऊपर का आधा स्वस्तिक और नीचे का प्राधा स्वस्तिक इस तरह दो भाग हो जाएंगे। ऊपर के प्राधे स्वस्तिक में रही २ मतियां (१) देव गति, और (१ और ४) मनुष्य गति ये सद्गति में गिनी जाती है। जबकि नीचे के आधे हिस्से में २ गतियां (२-३) नरक गति और तिर्यंच गति ये दुर्गति में गिनी जाती है । अशुभ पापोदय के कारण जीव दुर्गति में जाता है और शुभ पुण्योदय से जीव सद्गति में जाता है । स्वर्गीय देव भव एवं मनुष्य जन्म शुभ माने गए हैं अतः सद्गति के अन्तर्गत हैं । सद् का अर्थ भी शुभ ही है । दुर् का अर्थ खराब है। दुर्गति अर्थात् खराब गति । जीव ने न करने योग्य खराब पाप कर्म किए हैं जिसके फलस्वरूप जीव को खराब गति-दुर्गति नरक की और तिर्यंच की गति प्राप्त होती है। जहां जीव अपने किए हुए खराब पाप कर्म का फल दुःखरूप में भोगता है । ठीक इसके विपरीत जीव अच्छे शुभ पुण्योपार्जन करके सद्गति में जाता है । जहां सुख भी पाता है। _ 'स्वर्गवास' का लोक-व्यवहार. हम अक्सर देखते हैं कि किसी की भी मृत्यु के पीछे सभी स्वर्गवास ही लिखते हैं । सभी के लिए “इनकी सद्गति हो गई" ऐसा ही लिखते हैं । स्वर्ग = देव गति में या देव लोक में, वास = निवास-गमन । पिता की मृत्यु के बाद बेटा लिखता कर्म की गति न्यारी ११

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