Book Title: Jyoti Kalash Chalke
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 110
________________ के बोध के अभाव में अर्हम् की उपलब्धि कैसी ? महावीर सर्वप्रथम अहंकार के 'मैं' को गिराना चाहते हैं, फिर मेरेपन को, ममत्व के भाव को । मैं और मेरा, यही मिथ्यात्व है, माया है, सम्मोहन है | आसक्ति इसी का अपर नाम है। महावीर की भाषा तो कैवल्य की भाषा है । एक की भाषा, अपने आपसे जुड़ने की भाषा है 'अहमिक्को खलु सुद्धो' मैं अकेला हूँ, शुद्ध हूँ । भीड़ में भी निःसंग करा रहे हैं महावीर । 'सब ठौर हमरी जमात, सब ठौर पर मेला । हम सब मांही, सब हम मांही, हमहीं बहुरि अकेला ।' कबीर का यह पद, महावीर के सूत्र का ही विस्तार है । महावीर का यह सूत्र सांसारिक मायाजाल से मुक्त होने का मंत्र है । हमें सर्वप्रथम यह ज्ञात होना आवश्यक है कि 'मैं कौन हूँ।' मेरी जिंदगी में दसरे की किस हद तक जरूरत है । व्यक्ति को यह भी ज्ञात नहीं है कि मैं कौन हूँ, दुनिया में मेरा कौन है और वह दूसरों से सम्बन्ध स्थापित करने को लालायित है । दुनियाँ में ममता बांटना हमारा धर्म है, लेकिन ममत्व बुद्धि, जिसे हम मोह कह सकते हैं इसका संकुचन आवश्यक है । वात्सल्य और ममता, प्रेम का विस्तार है वहीं राग और आसक्ति प्रेम को बेड़ियों में जकड़ना है। महावीर सर्वप्रथम आत्म-परिचय प्राप्त करने को प्रेरित कर रहे हैं | जो ऐसा कर लेता है वह पूर्ण हो जाता है | बिना शून्य का बोध प्राप्त किये विराटता को पहचाना नहीं जा सकता । 'जे एगं जाणई से सव्वं जाणई' जो एक को, अपने आपको जानता है वह सब को, सारे संसार को जान लेता है । बंद में भी सागर छलक सकता है। आज के सूत्र को गहराई से समझें । 'जैसे दल-दल में फंसा हाथी तट को देखते हुए भी किनारे नहीं पहुँच पाता', यह सूत्र संसार और उसकी आसक्ति से आँख दो-चार करवा रहा है | जैसे मकड़ी के जाल में अनगिनत रेशे होते हैं वैसे ही आसक्ति के रेशे हैं । महावीर जीवन की उस अन्तिम घड़ी तक व्यक्ति को सचेत रहने का संकेत दे रहे हैं, जहाँ आसक्ति का एक रेशा भी जुड़ा हो । __ महावीर श्रमण-धर्म की ओर जीवन की धारा मोड़ रहे हैं | जीवन में जानना ही पर्याप्त नहीं है , ज्ञान का आचरण भी अनिवार्य है । हम अनासक्ति: संसार में संन्यास/१०१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170