Book Title: Jinendra Poojan
Author(s): Subhash Jain
Publisher: Raghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi

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Page 7
________________ प्रकाशकीय-निवेदन तुम निरखत मुझको मिली मेरी संपति आज। कहं चक्री की संपदा कहां स्वर्ग साम्राज्य ॥ तुम वंदत जिनदेव जी नवनित मंगल होय । विघन कोटि तत्क्षण टले लहें सुगति सबलोय ॥ मद-गृहस्थ का कर्तव्य है कि वह प्रात: शय्या त्यागकर णमोकार मंत्र का मंगलपाठ पढे और दैनिक कृत्य स्नानादि करके शुद्ध वस्त्र धारण कर थी जिनमंदिर में जाकर जिनेंद्रपूजन कर आत्मानुभूति का अभ्यास कर आनंदित हो। जिस प्रकार भीषण गर्मी के आतप से त्रसित पथिक मार्ग की मघन-शीतल-हरिन और जल-प्रपात युक्त पुष्पवाटिका की शीतल मंद वायु मे आनंदित हो उठता है-उसकी थकान दूर हो जाती है, उसी प्रकार सांमारिक जन्ममरण और गाहस्थिक झंझटों में फंसा प्राणी जिनेद्र पूजा का लाभ प्राप्तकर -वीतराग मुद्रा के आधार पर अपूर्व आत्मिक शांति प्राप्त करता है-वह आत्मानुभूति के मुख में झूम उठता है। श्रावक के दैनिक पट्कृत्यों में देवपूजा का प्रथम स्थान है और यह भारत के सभी प्रान्तों, नगरों और ग्रामों में अवाधरूप में प्रचलित है। पूजा के पठन-पाठन की सुविधा को दृष्टि

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