Book Title: Jinendra Poojan Author(s): Subhash Jain Publisher: Raghuveersinh Jain Dharmarth Trust New Delhi View full book textPage 5
________________ दो शब्द परम पुरुषार्थ - मोक्ष में कारणभूत एकमात्र वीतरागभाव है और उस वीतरागभाव की उपलब्धि वीतराग की उपासना मे ही साध्य है। इसलिए श्रावक की भूमिका से लेकर मुनिदशा पर्यन्त वीतराग की पूजा का विधान किया गया है । ये पूजा द्रव्य - पूजा और भाव- पूजा के भेद से दो प्रकार की है। जहां.. मुनिदशा में मात्र भावपूजा का विधान है वहां श्रावक के लिए द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की पूजा उपयोगी है। इस पूजा के माहात्म्य में मेंढक जैसा तुच्छ जीव भी अपना कल्याण कर गया। कहा भी है- 'जगन में जिनपूजा सुखदाई ।' धावक का कर्तव्य है कि वह प्रातः दैनिक कृत्यों से निवृत्त होकर स्नान करके, शुद्ध वस्त्र पहिन, श्री जिनमंदिर में जाए और जल चंदनादि अष्ट द्रव्यों से जिनेंद्र भगवान की पूजा कर निज भावों को पवित्र बनाए। ऐसा करने से पाप की हानि तो होती ही है, साथ ही पुण्य का संचय भी होता है। पूजा का निरंतर अभ्यास होने से क्रमशः भावों की शुद्धि में सहायता मिलती है और परम्परया जीव निःश्रेयस मुख का अधिकारी बनता है । जिनशासन में मूर्ति की पूजा का विधान नहीं है अपितुPage Navigation
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