Book Title: Jinabhashita 2009 05 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 7
________________ होती है और कुदेवबिम्ब, कुदेवायतन, कुगुरु आदि के सान्निध्य एवं आराधना से अदया, लोभ, अभिमान, कुटिलता आदि अशुभ परिणामों का उदय होता है। इन शुभाशुभ परिणामों से जीव को साता-असातावेदनीय कर्म का बन्ध और उदय तथा अन्तरायकर्म का बन्ध, उदय एवं क्षयोपशम अपने-आप होता है, जिससे जीव को सुख दुःख की प्राप्ति और कार्य की सिद्धि या असिद्धि स्वतः होती है। इस प्रकार योग्य परद्रव्य केवल जीव के शुभाशुभ परिणामों की उत्पत्ति में निमित्त बन सकता है। केवल इस कारण शुभपरिणामों की उत्पत्ति में निमित्तभूत द्रव्य शुभ द्रव्य कहलाता है और अशुभपरिणामों की उत्पत्ति का हेतुभूत द्रव्य अशुभद्रव्य संज्ञा पाता है। जिनबिम्ब, जिनालय आदि शुभपरिणामों की उत्पत्ति में निमित्त होते हैं, अत: ये शुभद्रव्य हैं। इसके विपरीत कुदेव, कुदेवायतन आदि द्रव्य अशुभ परिणामों की उत्पत्ति में निमित्त होने से अशुभद्रव्य हैं। किन्तु आकाश द्रव्य का कोई भी भाग (दिशा) उसकी ओर मुख करके स्थित होनेवाले जीव में दया. निर्लोभ आदि शुभपरिणामों की तथा अदया, लोभ आदि अशुभपरिणामों की उत्पत्ति में निमित्त नहीं होता। यदि ऐसा हो, तो आकाशद्रव्य जिनबिम्बादि एवं कुदेवबिम्बादि के गुणों से युक्त सिद्ध होगा। इसके अतिरिक्त अमूर्त होने के कारण मूर्त जिनबिम्बादि की तरह वह जीव के शुभाशुभापरिणामों की उत्पत्ति में मनोवैज्ञानिक हेतु बन भी नहीं सकता। अतः जीव को सुखदुःख, सिद्धि-असिद्धि प्राप्त करानेवाले शुभाशुभ कर्मों के बन्ध, उदय एवं क्षयोपशम में जो शुभाशुभ परिणाम निमित्त होते हैं, उनकी उत्पत्ति में सहायक न होने से आकाश द्रव्य का कोई भी भाग (दिशा) शुभ या अशुभ द्रव्य नहीं हैं। जैसा कि भगवती-आराधना (गाथा ५६२) की पूर्वोद्धत टीका से प्रकट है, विदेहस्थित तीर्थंकरों के सान्निध्य से तीर्थंकरों के शुभत्व का उत्तरदिशा पर आरोप किया जाता है और सूर्योदय के सान्निध्य से पूर्वदिशा, जो अभ्युदय का प्रतीक बन जाती है, उसके कारण अथवा सूर्यविमान में विराजमान जिनबिम्ब के साहचर्य से जिनबिम्ब का शुभत्व पूर्वदिशा पर आरोपित किया जाता है। अतः आकाश द्रव्य के पूर्व और उत्तर भाग अपने आप में शुभ (जीवों की कार्यसिद्धि के हेतु या शुभफलदायक) नहीं हैं, अपितु उन्हें उपचार से शुभ कहा जाता है, जैसे राजा के साथ रहने से राजा के मंत्री आदि को भी लोक में राजा कह दिया जाता है। वास्तुशास्त्रविषयक महत्त्वपूर्ण संकेत • भगवती-आराधनाकार आचार्य वट्टकेर और विजयोदयाटीकाकार आचार्य अपराजित सूरि ने पूर्वोक्त गाथाओं और उनकी टीका में यह महत्त्वपूर्ण संकेत दिया है कि मांगलिक कार्यों की सिद्धि में वास्तु की दिशाओं का महत्त्व नहीं है, अपितु उसमें रहनेवाले मनुष्य के मुख की दिशा का महत्त्व है। अर्थात् वास्तु कैसा भी हो वास्तुशास्त्रानुसार निर्मित अथवा उसके प्रतिकूल निर्मित गृह में रहनेवाला मनुष्य यदि जिनबिम्ब, जिनालय या उपस्थित तीर्थंकर की दिशा में मुख करके कोई मांगलिक कार्य करता है, तो तत्काल उत्पन्न हुए शुभपरिणामों के प्रभाव से उसकी सिद्ध होती है। नम्र निवेदन ___इस लेख में प्रस्तुत किये गये तथ्य यदि विज्ञ पाठकों की धारणाओं के विरुद्ध हों, तो कृपया मुझ पर कुपित या रुष्ट न हों, और जिन आगमप्रमाणों के आधार पर उक्त तथ्य प्रस्तुत किये गये हैं, उन्हें असत्य सिद्ध करनेवाले अन्य कोई आगमप्रमाण विज्ञ पाठकों की दृष्टि में हों, तो उनसे मुझे अवगत कराने की कृपा करें। आगमसम्मत युक्तिमद् वचन क्षमायाचनापूर्वक स्वीकार करने में, मैं विलम्ब नहीं करूँगा। अपनी बात कहना और दूसरे की बात को धैर्यपूर्वक सुनना और गुनना ही तत्त्वबोध का समीचीन मार्ग है, जैसा कि ऋषियों ने कहा है- 'वादे वादे जायते तत्त्वबोधः।' रतनचन्द्र जैन - मई 2009 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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