Book Title: Jinabhashita 2009 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 30
________________ मालूम होती है, परन्तु अभी तक इस विषय में किसी की अन्य अन्य पर्यायों का अभाव अन्योन्याभाव है। शिल्पशास्त्र, प्रतिष्ठापाठ या पूजा प्रकरण का कोई प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया है। और यह बात कुछ समझ में भी नहीं आती है कि जो लोग दर्शन-पूजन पाठादि के अधिकारी ही नहीं माने जाते हैं, उनके लिए शिखरों पर या द्वारों पर मूर्तियाँ जड़ने का परिश्रम क्यों आवश्यक समझा गया होगा। यदि इन लोगों को दूर से दर्शन करने देना ही । इस प्रकार हैंअभीष्ट होता, तब तो मंदिरों के बाहर दीवालों में या आगे खुले चबूतरों पर ही मूर्तियाँ स्थापित कर दी जातीं। मेरी समझ में तो शिखर पर या द्वार पर जो मूर्तियाँ रहती हैं उनका उद्देश्य केवल यह प्रकट करना होता है कि उस मंदिर में कौन सा देव प्रतिष्ठित है। अर्थात् वह किस देवता का मंदिर है । वास्तव में वह मुख्य देव का संक्षिप्त चिन्ह होता है, जिससे लोग दूर से ही पहचान जाएँ कि यह अमुक का मन्दिर है---1" तारीख ९ अगस्त १९५३ के 'नव भारत टाईम्स' में श्रीमती गोमती रावत ने 'खजुराहा' शीर्षक लेख में लिखा है"यहाँ के गर्भगृह के दरवाजों पर उत्कीर्ण देव प्रतिमा को देखकर ही प्रधान देव का अनुमान किया जा सकता है।" प्रश्नकर्त्ता नवीन कुमार जैन, बरेली। जिज्ञासा - अभाव के कितने भेद होते हैं, समझाने का कष्ट करें? समाधान- जैनाचार्यों ने अभावों को मुख्यत: चार भेदों में वर्गीकृत किया है। जिनका लक्षण कसायपाहुड़, आप्तमीमांसा टीका तथा जैनसिद्धान्तप्रवेशिका आदि में प्राप्त होता है। जिनका संक्षेप इस प्रकार है १. प्राग् अभाव - वर्तमान पर्याय का पूर्व पर्याय में जो अभाव है, उसे प्राग् अभाव कहते हैं । अथवा वर्तमान पर्याय में आगे होनेवाली पर्याय का अभाव होना प्राग् अभाव है जैसे दूध में दही का अभाव या दही में छाछ का । अभाव । २. प्रध्वंस अभाव- वर्तमान पर्याय में बीती हुई पर्याय के अभाव को प्रध्वंस अभाव कहते हैं, जैसे- दही में दूध का अभाव या छाछ में दही का अभाव । ३. अन्योन्य अभाव- द्रव्य की एक वर्तमान पर्याय में उसी द्रव्य की विगत और आगे होनेवाली सभी पर्यायों के अभाव को अन्योन्य अभाव कहते हैं तथा वर्तमान पर्याय में उसी द्रव्य की अन्य अन्य वर्तमान पर्यायों का अभाव अन्योन्याभाव है। जैसे- दही में घास, भूसा, रोटी का अभाव तथा जैसे घी में मिट्टी, पत्थर लकड़ी आदि पुंदगुल द्रव्य 28 मई 2009 जिनभाषित Jain Education International ४. अत्यन्त अभाव- अन्य द्रव्य का, अन्य द्रव्य में अभाव होना या एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का अभाव होना अत्यन्ताभाव है। जैसे पुद्गल में जीव का अभाव आदि। श्री धवलाकार ने अभाव के दो भेद कहे हैं, जो १. पर्युदास अभाव किसी एक वस्तु के अभाव द्वारा दूसरी वस्तु का सद्भाव दर्शाना पर्युदास अभाव है, जैसे- प्रकाश का अभाव ही अंधकार है। २. प्रसज्य अभाव वस्तु के अभाव मात्र को दर्शाना प्रसज्य अभाव है । जैसे- गधे के सिर पर सींग का अभाव । प्रश्नकर्त्ता ब्र. नवीन जैन देहली। जिज्ञासा मानुषोत्तर पर्वत के उस तरफ असंख्यात द्वीप समुद्रों में जो भोगभूमि और उसमें रहने वाले तियंच हैं, उनके बारे में बताइये? समाधान- मानुषोत्तर पर्वत के उस तरफ नागेन्द्र पर्वत पर्यन्त जो असंख्यात द्वीप हैं, उनमें जघन्य भोगभूमि की रचना है। इनके संबंध में सिद्धान्तसारदीपक अध्याय१० श्लोक नं० ३९६ से ४०१ तक इस प्रकार कहा है 'इन जघन्य भोगभूमियों में मात्र तिर्यच रहते हैं, जिनकी संख्या असंख्यात है। ये सभी तिर्यंच गर्भज, भद्रस्वभावी, शुभपरिणति से युक्त, पञ्चेन्द्रिय और क्रूरतारहित होते हैं। इनका जन्म युगलरूप से ही होता है। वे मृग आदि शुभ जातियों में उत्पन्न होते हैं। एक पल्य की आयुवाले एवं वैरभाव से रहित होते हैं तथा कल्पवृक्षों से उत्पन्न भोग भोगते हैं। ये जीव मंदकषायी होते हैं, अतः मरकर स्वर्ग ही जाते हैं। जिन्हें सम्यग्दर्शन नहीं होता, वे भवनत्रिक में उत्पन्न होते हैं। जो अज्ञानी जीव सम्यग्दर्शन और व्रतों से रहित हैं तथा कुपात्रदान से उत्पन्न कुछ पुण्य, उससे जो निन्दनीय भोगों की वाञ्छा करते हैं, वे जीव मरकर इस भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं। यहाँ कीड़े-चींटी-मच्छर आदि छोटे जन्तु, क्रूरपरिणामी जीव एवं विकलेन्द्रिय जीव कभी उत्पन्न नहीं होते। " जम्बूद्वीपपण्णत्तिसंगहो अधिकार ११ श्लोक नं० १८६ से १८९ तक इन तिर्यंचों का वर्णन है, जिसके अनुसार ये सभी तियंच दो हजार धनुष ऊँचे, सुकुमार, कोमल अंगों वाले, मंदकषायी, फलभोजी और एक दिन छोड़कर आहार करनेवाले होते हैं। For Private & Personal Use Only १/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा - २८२ ००२, उ० प्र० www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 28 29 30 31 32 33 34 35 36