Book Title: Jinabhashita 2009 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 29
________________ प्रकार कहा है यदि आयुकर्म का अपकर्ष काल हो, तो उपर्युक्त कार्मण उववण-वावि-जलेहिं, सित्ता पेच्छंति एक्क-भव जाइं। वर्गणाएँ आठों कर्म रूप अथवा अन्य कालों में सात कर्म तस्स णिरिक्खण-मेत्ते, सत्त-भवातीद-भावि जादीओ॥ आदि रूप परिणमन करती हैं। इस संख्या में से सबसे ४/८१६॥ अधिक भाग वेदनीय कर्म को मिलता है, क्योंकि वह अर्थ- उपवन की वापिकाओं के जल से अभिषिक्त | संसारी जीवों को सुख-दुख का कारण है और उसकी जन-समूह एक भवजाति (जन्म) को देखते हैं, तथा उनके | निर्जरा अधिक होती है। इससे कम भाग मोहनीय कर्म (वापी के जल में) निरीक्षण करने पर अतीत एवं अनागत | को मिलता है, उससे कम भाग ज्ञानावरण, दर्शनावरण और सम्बन्धी सात भव-जातियों को देखते हैं। अन्तराय कर्म को समान मिलता है, उससे कम भाग नाम श्री तिलोयपण्णत्ति गाथा ९३५ में इस प्रकार कहा है- | और गोत्र कर्म को आपस में समान मिलता है। सबसे कम भव-सग-दंसण-हेदं, दरिसण-मेत्तेण सयल-लोयस्स। | भाग आयुकर्म को मिलता है। जिस गुणस्थान में जितने भामंडलं जिणाणं,रवि-कोडि-समुज्जले जयइ॥४/९३५॥ कर्मों का बंध होता है, उपर्युक्त समय प्रबद्ध प्रमाण का अर्थ- जो दर्शन-मात्र से ही सब लोगों को अपने- | उतने ही कर्मों में बँटवारा हो जाता है। यह मूल प्रकृति अपने सात भव देखने में निमित्त है और करोड़ों सूर्यों के | का बँटवारा हुआ। सदृश उज्ज्वल है, तीर्थंकरों का ऐसा वह प्रभामण्डल उत्तर प्रकृतियों में अपने क्रमानुसार ज्ञानावरण, जयवन्त होता है। दर्शनावरण तथा मोहनीय के भेदों में हीन-हीन द्रव्य मिलता समवशरण की वापिकाओं में तथा भामण्डल में | है। जैसे- ज्ञानावरणीय को प्राप्त द्रव्य का सबसे ज्यादा भाग अलग-अलग जीवों को, अपने-अपने सात-सात भव | मतिज्ञानावरण को, उससे कम श्रुतज्ञानावरण को, उससे कम दिखने के अतिशय (चमत्कार) का अभिप्राय 'पं० रतनचन्द्र | अवधिज्ञानावरण को आदि-आदि मिलता है। नाम व जैन मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्व' पृष्ठ १२१४ पर इस | अन्तराय कर्म के भेदों में क्रमशः अधिक-अधिक द्रव्य प्रकार स्पष्ट किया गया है- "वापिका जल व भामण्डल | मिलता है, जैसे- सबसे कम द्रव्य दानांतराय को, उससे में सात भव लिखे नहीं रहते, किन्तु तीर्थंकर भगवान् की अधिक लाभान्तराय को, उससे अधिक भोगान्तराय को निकटता के कारण वापिका जल व भामण्डल में इतना आदि-आदि मिलता है। वेदनीय, गोत्र और आयुकर्म के अतिशय हो जाता है कि उनके अवलोकन से अपने सात | भेदों में बँटवारा नहीं होता, क्योंकि इनकी एक काल में भवों के ज्ञान का क्षयोपशम हो जाता है।" स्थूल रूप से | एक ही प्रकति बँधती है और उसे ही अपनी मूलप्रकृति सात भवों के ज्ञान का क्षयोपशम हो जाने पर भी, जिसका का पूरा द्रव्य मिलता है। जैसे- जब सातावेदनीय का बंध उस क्षयोपशम की तरफ उपयोग नहीं जाता या जो सूक्ष्म | होता है. तब असातावेदनीय का नहीं होता। इसलिए वेदनीय रूप स जानना चाहता है वह प्रश्न कर लेता है और | को प्राप्त पूरा द्रव्य सातावेदनीय को प्राप्त होता है। दिव्यध्वनि के सुनने से उसका स्वयमेव समाधान हो जाता ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीय, इन तीन मल है। भगवान् के मोहनीय कर्म का अभाव हो जाने से वे | प्रकृतियों का जो अपना द्रव्य है, उसमें अनन्त का भाग इच्छापूर्वकक किसी के प्रश्न का उत्तर नहीं देते। | देने से एक भाग तो सर्वघाति का द्रव्य होता है तथा शेष आशा है आपको उचित समाधान प्राप्त हो गया होगा। | अनन्त बहुभाग प्रमाण द्रव्य देशघाति का होता है। प्रश्नकर्ता- पं० नरेन्द्र जैन, सागर । जिज्ञासा- पहले जैन मंदिरों के शिखरों तथा दरवाजों जिज्ञासा- एक समय में कितनी कार्मण वर्गणाएँ | की चौखटों पर भी मूर्तियाँ बनाई जाती थीं। इसका क्या बँधती हैं और उनका बँटवारा किस प्रकार होता है? | अभिप्राय था? समाधान- आपकी जिज्ञासा के समाधान में गोम्मटसार समाधान- आपके प्रश्न के उत्तर में पं० नाथूराम कर्मकाण्ड गाथा १९१ से १७९ में अच्छी तरह वर्णन किया | जी प्रेमी ने अपनी पुस्तक, 'जैन साहित्य और इतिहास' गया है। उसी के आधार से यहाँ उत्तर दिया जा रहा है- | में इस प्रकार कहा है- "कुछ सज्जन ऐसा कहते हैं कि प्रत्येक जीव प्रतिसमय समयप्रबद्ध प्रमाण (सिद्धराशि | ये मर्तियाँ शद्रों और अस्पृश्यों के लिए स्थापित की जाती के अनन्तवें भाग अथवा अभव्य राशि से अनन्तगुणा) | रही हैं, जिससे वे वाहर से ही भगवान् के दर्शनों का सौभाग्य पुदगल (कार्मणवर्गणा) द्रव्य को कर्मरूप ग्रहण करता है।। प्राप्त कर सकें। यह बात कहने-सुनने में तो बहुत अच्छी - मई 2009 जिनभाषित 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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