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चौदह गुणस्थान क्या हैं, जिन्हें झाँकियों के माध्यम से जीवन्त किया जायेगा ?
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और आसक्ति तथा माया पूर्वक संचित करनेवाला, परिग्रह रूप पापों को करनेवाला, संसारी प्रथम गुणस्थानवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव होता है, जो रागद्वेष, मोह, ममता, इन्द्रियवासना की गुलामी में रहनेवाला किस प्रकार आसक्ति के ज्वर से तप्त होता हुआ संसार का बर्द्धन करता है। संसार के बहुसंख्यक जीव इसी गुणस्थान में रहते हैं।
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सम्यग्दर्शन की भूमिका में आनेवाला अर्थात् सच्चे देव- शास्त्र - गुरुरूप रत्नत्रय में श्रद्धा रखनेवाला चौथा गुणस्थान असंयत सम्यग्दृष्टि का होता है, जिसमें जीव संयम से रहित होता है। इसके पश्चात् वह सम्यग्दर्शन के साथ ही स्थूल रूप से पाँच पापों का त्याग करता हुआ 'संयतासंयत' नामक पाँचवें गुणस्थान में प्रवेश करता में प्रवेश करता है। आगे चारित्र की आराधना महाव्रतरूप करता हुआ साधु बनता है, प्रमादसहित छट्ठा प्रमत्तसंयत और प्रमाद रहित सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त करता है। यदि प्रमाद पर पूर्ण व स्थायी विजय प्राप्त करली यानी आत्मजागरण की विशिष्ट दशा को सातिशय अप्रमत्त दशा कहते हैं। इस सातवें गुणस्थान के बाद ८-९ व १० वें गुणस्थान में या तो उपशम श्रेणी चढ़ता है या क्षपक श्रेणी। जब जीव चारित्र मोहनीय कर्म का उपशम करता है. तो उपशमश्रेणी और जब चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय करता है, तो क्षपक श्रेणी का आरोहण करता है । गुणायतन में इन दोनों प्रकार की श्रेणियों का अन्तर स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया जायेगा। क्रमशः अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय नाम से ये गुणस्थान जाने जाते हैं। सातिशय अप्रमत्त दशा के बाद पूर्व में अनुभव में न आयी, ऐसी आत्मविशुद्धि का जब वह अनुभव करता है, तो अपूर्वकरण गुणस्थान होता है। नौवें अनिवृत्तिकरण में स्थूल मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम होता है,
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जबकि १० वें में संज्वलन लोभ- कषाय मात्र का अत्यन्त सूक्ष्म उदय रहता है। अर्थात् इसके पूर्व गुणस्थान में संज्वलन क्रोध, मान, माया, और लोभ कषाय का स्थूल रूप या तो क्षय हो जाता है या उपशम ग्यारहवाँ गुणस्थान कर्मों के उपशम के कारण मिलता है, जो अस्थायी रहता है जबकि बारहवाँ 'क्षीण मोह' गुणस्थान समस्त मोहनीय कर्मों के क्षय से प्राप्त होता है। इस गुणस्थान में आत्मा परमात्मा बनने के निकट पहुँच जाती है और तेरहवें 'संयोग केवली' गुणस्थान में आत्मा चार घातिया कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त करके 'परमात्मा' की कोटि (श्रेणी) में आ जाती है। फिर तेरहवें गुणस्थान के अन्त में विशुद्ध शुक्ल ध्यान के बल से योगों का निरोध करके शेष अघातिया कर्मों को क्षय करके 'सिद्ध' परमात्मा (अशरीरी) बनकर मोक्ष प्राप्त करता है। स्मरण होना चाहिए कि दूसरा 'सासादन' गुणस्थान और तीसरा सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान प्रथम से चढ़ने के लिए नहीं अपितु ४थे ५ वें ६ से गिरने के लिए होता है। उक्त गुणस्थानों को गुणायतन में दर्शाया जावेगा। गुणायतन का निर्माण श्री सम्मेद शिखर में क्यों ?
समस्त जैन धर्मावलम्बियों का यह तीर्थ, शिरोमणितीर्थ है, जहाँ प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु व पर्यटक आते हैं। अतः जैनधर्म का बोध कराने के लिए तथा पर्यटकों को ध्यान की गुणवत्ता समझाने के लिए 'गुणायतन' का निर्माण एक सकारात्मक सोच है। इसी गुणायतन परिसर में सर्वसुविधायुक्त यात्रीनिवास, संतनिवास, ध्यानमंदिर एवं भव्य जिनमंदिर निर्माण की योजना भी प्रस्तावित है। निश्चित ही, 'गुणायतन' द्रव्यानुयोग का ऐसा मूर्त स्मारक. होगा जो भारत का ही नहीं विश्व में अपनी विशिष्ट पहचान बनायेगा। आइये इसके निर्माण में हम अपने पुण्यद्रव्य का उपयोग कर पुण्यार्जक बनें और जैनसंस्कृति को जीवन्त बनावें ।
राज० प्रदेश श्रीसेवायतन समिति के नये प्रमुख
अजमेर, यहाँ राजस्थान प्रदेश श्रीसेवायतन समिति की एक बैठक संपन्न हुई, जिसमें श्रीमती सुशीला पाटनी (आर. के. मार्बल्स किशनगढ़) राजस्थान प्रदेश महिला प्रकोष्ठ की प्रमुख चुनी गयीं। इसी प्रकार युवा प्रमुख के रूप में श्री प्रकाश पाटनी का चयन किया गया। क्षेत्र के प्रमुख के रूप में श्री ताराचन्द्र जी गंगवाल का चयन किया गया। बैठक में उपस्थित श्री मूलचन्द जी लुहाड़िया व डॉ० नीलम जैन राष्ट्रीय अध्यक्ष महिला प्रकोष्ठ श्रीसेवायतन ने कहा कि श्री सम्मेद शिखर जी की तलहटी में बसे ग्रामवासियों की बदहाली को खुशहाली में बदलने के लिए हम सब को श्री सेवायतन से जुड़कर अपने दायित्व का निर्वाह करना चाहिये ।
मई 2009 जिनभाषित 25
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