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चर्तुथ अंश
तत्त्वार्थसूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द का विश्लेषणात्मक विवेचन
तृतीय अध्याय
पं० महेशकुमार जैन व्याख्याता
तासु त्रिंशत्पंचविंशतिपंचदश- दश-त्रि-पंचोनैकनरक शतसहस्राणि पंच चैव यथाक्रमम् ॥ २ ॥
सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति, तत्त्वार्थवृत्ति एवं तत्त्वार्थमंजूषा आदि ग्रन्थों में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं की है।
भावार्थ- सूत्र में आये 'च' शब्द का अर्थ ' और '
है ।
संक्लिाष्टासुरोदीरित दुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ॥ ५ ॥ सर्वार्थसिद्धि- 'च' शब्द: पूर्वोक्तदुःखहेतुसमुच्चयार्थः । सुतप्तयोरसपायननिष्टप्तायस्तम्भालिंगनकूटशाल्मल्या- रोहणा
वतरणायोघनाभिघातवासी क्षुरतक्षणक्षारतप्ततैलावसेचनायःकुम्भीपाकाम्बरीष भर्जनवैरतरणीमज्जनयन्त्रनिष्पीडनादिभिनरकाणां दुःखमुत्पादयन्ति ।
अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द पूर्व के दुःख के कारणों का समुच्चय करने के लिए दिया है। परस्पर खूब तपाया हुआ लोहे का रस पिलाना, अत्यन्त तपाये गये लौह स्तम्भ का आलिंगन, कूट सेमर के वृक्ष पर चढ़ाना उतारना, लोहे के घन से मारना, बसूला और छुरा से तराशना, तपाये गये खारे तेल से सींचना, तेल की कढ़ाही में पकाना, भाड़ में भूँजना, वैतरणी में डुबाना, यंत्र से पेलना आदि के द्वारा नारकियों के परस्पर दुःख उत्पन्न कराते हैं।
राजवार्तिक- 'च' शब्द: पूर्वहेतुसमुच्चयार्थः । संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च पूर्वोक्तहेतूदीरितदुःखाश्चेति समुच्चयार्थश्चशब्दः। इतरथा हि तिसृषु भूमिषु पूर्वोक्तहेत्वभावः प्रतीयेत ।
अर्थ- 'च' शब्द पूर्वोक्त दुःख हेतु के समुच्चय के लिए है । तीनों पृथ्वियों में संक्लिष्ट असुरोदीरित दुःख, परस्परोदीरित दुःख और भूमिजन्य शीतोष्ण दुःख भी होता है । इन सबका ज्ञान कराने के लिए 'च' शब्द का प्रयोग किया है। यदि 'च' शब्द का प्रयोग नहीं करते, तो तीनों भूमियों में पूर्वोक्त हेतुओं के अभाव का प्रसंग आता । अतः यह सूत्र ठीक I
श्लोकवार्तिक- 'च' शब्द पूर्वहेतुसमुच्चार्थः । अर्थः- 'च' शब्द पूर्व सूत्र में कहे गये दुःख के कारणों का ग्रहण करने के लिए है ।
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सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति - 'च' शब्द: पूर्वोक्तदुःखहेतुसमुच्चयार्थः। अन्यथा पूर्वसूत्रस्येदं सूत्रमुपरिष्टभूमित्रये बाधकं स्यादित्यर्थः ।
अर्थ- 'च' शब्द पूर्वोक्त दुःखों का समुच्चय करने के लिए है। अन्यथा ऊपर की तीन भूमियों में यह सूत्र पूर्वसूत्र को बाधा करेगा। अभिप्राय यह है कि यदि इस सूत्र में 'च' शब्द नहीं होता, तो पूर्व सूत्र में कहा गया परस्पर उदीरित दुःख का तीसरे नरक तक अभाव हो जाता। फिर यह अर्थ होता कि पहले के तीन नरकों में असुर द्वारा प्रदत्त दुःख है और शेष भूमियों में परस्पर उदीरित दुःख है।
तत्त्वार्थवृत्ति - चकारः पूर्वोक्तदुःखसमुच्चयार्थः । तेन तप्तलोहपुत्तलिकालिंगनतप्ततैलसेचनाऽयः कुम्भीपचनादिकं दुःखमुत्पादयन्ति ते असुरा इति तात्पर्य्यम् ।
अर्थ- सूत्र में चकार पूर्वोक्त दुःख का समुच्चय करने के लिए है, जिससे गर्म लोहे की पुलतियों से आलिंगन, तेल की कढ़ाही में पकाना आदि दुःख भी असुरकुमारकृत दिये जाते हैं। 1
आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज- तीसरे नरक के नारकियों को देवों द्वारा कदाचित् सुख भी दिया जाता है ।
भावार्थ- तृतीय पृथ्वी तक के नारकियों को असुरों के द्वारा दिया गया दुःख होता है एवं सूत्र में 'च' शब्द पूर्व सूत्र में कहे गये दुःखों का समुच्चय करने के लिए है । यथा- असुरों के द्वारा परस्पर खूब तपाया हुआ लोहे का रस पिलाना, लोहे के घन से मारना, बसूला और छुरा से तराशना आदि । यदि 'च' शब्द न देते, तो प्रारम्भ की 3 पृथ्वियों में परस्पर दुःख का अभाव हो जाता । मणिविचित्र पार्वा उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः ॥ १३ ॥
सर्वार्थसिद्धि एवं राजवार्तिक- च शब्दो मध्यसमुच्चयार्थः । य ऐषां मूलविस्तारः स उपरि मध्ये च तुल्यः ।
अर्थः- 'च' शब्द मध्यभाग का समुच्चय करने के लिए है । तात्पर्य यह है कि इनका मूल में जो विस्तार वही ऊपर और मध्य में है।
श्लोकवार्तिक- 'च' शब्दान्मध्ये च तथा चानिष्ट
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मई 2009 जिनभाषित 19
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