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श्रावक की कर्तव्य-निष्ठा
स्व० पं० माणिकचन्द्र जी 'कौन्देय'
णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं।। और जिन चैत्यालय, इस प्रकार ९ देवता हैं। सब को णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं॥ | नमस्कार हो। णमो अरहंतांण
जिनधर्म जो चार घातिया कर्मों का नाश कर अनंत ज्ञान, आत्मा का स्वभाव-परिणमन तथा क्षमा, मार्दव दर्शन, सुख, वीर्य इन चार अनंत चतुष्टयों को प्राप्त | आदि दसधर्म एवं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र कर चुके हैं,शुभ-संस्थानी और वज्रवृषभनाराचसंहनन वाले | ये मोक्षमार्ग अथवा जीवों की रक्षा करना एवं इनके तथा वादर निगोद, विकलत्रय जीवों से रहित पवित्र | कारणभूत देवदर्शन, जिनपूजन, स्वाध्याय, संयमपालन, परमौदारिक शरीर के धारी, विदेह क्षेत्र के वर्तमान बीस | व्रतशील-धारण, उपवास, सामायिक, वैयावृत्य आदि भी तीर्थंकरों एवं ढाई द्वीप के ८९८४८२ सामान्य केवलियों | धर्म कहे जाते हैं। एवं भूत भविष्य काल के केवलज्ञानियों को नमस्कार
जिनागम हो।
द्वादशांग वाणी के एक कम एकट्टी प्रमाण अपुनरुक्त णमो सिद्धाणं
अक्षर हैं। १६३४८३०७८८८ अक्षरों का एक पद होता ___ढाई द्वीप प्रमाण सिद्ध-शिला के ऊपर विराजमान | है। १८४४६७४४०३३७०-९५५१६१५ इन अपुनरुक्त अक्षरों तथा उपरिम सात राज लम्बे एक राज चौडे १५७५ बडे में १६३४ करोड आदि का भाग देने पर ११२८३५८००५ धनुष मोटे तनुवातवलय के उपरिम १५०० सौवें भाग | इनके पद बन जाते हैं। और ८०१०८१७५ अक्षर बच में विराजमान, बड़ी अवगाहनावाले बाहुबली आदि स्वामी | जाते हैं। इन सबके द्वादशांग, अंगबाह्य ग्रन्थ गूंथे जाते सवा पाँच सौ धनुष ऊँचे सिद्ध भगवान् हैं। तथा नौ | हैं, वे सब जिनागम हैं। तथा गणधरगुम्फित आगम अनुसार लाखवें भाग में विराजमान छोटी अवगाहनावाले साढ़े तीन | बनाये गये, महर्षि प्रणीत समयसार प्रवचनसार, श्लोक हाथ ऊँचे (श्रीदत्त आदि) एवं तनवातवलय के अनेक | वार्तिक, गोम्मटसार, जयधवल, अष्टसहस्त्री, राजवार्तिक, मध्यम भागों में स्थित अनंतानंत सिद्ध परमेष्ठियों को सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रंथ भी जिनागम हैं। इनकी मैं वंदना प्रणाम हो।
| करता हूँ। णमो आइरियाणं
जिनचैत्य दर्शन, ज्ञान, चारित्र वीर्य तप इन पाँच आचारों | तीन लोक में यत्र तत्र विराजमान जिनप्रतिमाएँ, को स्वयं आचरण करनेवाले तथा दसरे भव्यों को आचरण | सब जिन-चैत्य हैं। नौ सौ पच्चीस करोड त्रेपन लाख करानेवाले तीनों काल के आचार्यों को नमोऽस्तु हो।। सत्ताईस हजार नौ सौ अड़तालीस, ये प्रतिमाएँ अकृत्रिम णमो उवज्झायाणं
शाश्वत हैं। इनके अतिरिक्त भी चैत्य वृक्षों, समवसरण जो स्वयं रत्नत्रय से युक्त हैं, जिनेन्द्रोक्त द्वादशाङ्ग के सिद्धायतन, कूर्य नदियों के उद्गम स्थान पर बने वाणी का पठन पाठन करते हैं, ऐसे उपाध्याय परमेष्ठियों हुए तोरण द्वारों पर या समुद्र में मिलने के तोरण द्वारों को प्रणति हो।
पर, पतन स्थान कुण्डों के तोरण द्वारों पर एवं देवों के णमो लोए सव्वसाहूणं
स्थान पर बने चैत्य वृक्षों, मान-स्तम्भों पर अनेक स्थलों परमात्मा के ध्यान में संलग्न, दशधर्म, पंचमहाव्रत- | पर अकृत्रिम जिन बिम्ब हैं। तथा अन्यत्र भी यहाँ भरत धारक, परीषहजयी, छठे गुणस्थान से लेकर चौरहवें तक, | क्षेत्र आदि में बनाई गई कृत्रिम प्रतिमाएँ हैं, ये सब प्रतिमाएँ सर्व लोकवर्ती ८९९९९९९७ (तीन कम नौ करोड़) मुनिवरों | चैत्यदेव कहे जाते हैं। इनको तथा भूत-भविष्य काल का नमस्कृति होवे।
के कृत्रिम जिन बिम्बों को भी नमन करता हूँ। जैनमत में पंच-परमेष्ठियों के अतिरिक्त चार देवता
जिनचैत्यालय और भी माने गये हैं। जिनधर्म. जिनागम, जिन-चैत्य भवनवासियों के भवनों में सात करोड़ बहत्तर लाख
14 मई 2009 जिनभाषित
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