Book Title: Jinabhashita 2009 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 18
________________ (तत्वार्थ सूत्र)। हाँ मिथ्यादृष्टि मनुष्य विदेह में जन्म । पीव आदि चीजें दिख जावे तो भोजन छोड़ देना चाहिये। कता है। एकेन्द्रिय जीव भी विदेह में मानव बन | २. रजस्वला स्त्री या सूखा चमड़ा, हड्डी अथवा सकता है। कोई कोई मोक्ष भी जा सकता है। मांसभोजी बिल्ली, कुत्ता आदि पशु छू जाये तो गृही को सोलह कारण, दश धर्म, भावना-चिन्तन, परिषह | भोजन का अंतराय है। जीतना, मन, वचन, काय को पापारंभ में न फँसने देना, ३. अत्यंत कठोर शब्द, करुणा, प्रचुर रोना, पूजन, स्वाध्याय उपवास, प्रतिक्रमण धर्मध्यान आदि से | चिल्लाना, अग्निदाह, वज्रपात आदि शब्द सुन लिये जायें सम्यग्दर्शन पुष्ट होता है। वह भोगों को अनासक्त भोगते | तो भोजन का अन्तराय है। हुए भी अडिग रहता है। सम्यग्दर्शन के समान जीव ४. आखड़ी की गई चीज यदि खाने में आ जाये का कोई कल्याणकारी बंधु नहीं, किसी को सम्यग्दर्शन | तो उसी समय भोजन छोड देवे। भोज्य पदार्थ में जीवित से एक दो-तीन-चार भव में भी मोक्ष हो सकता है। या मरे चींटी, लट आदि मिश्रित हो जावें, तो भोजन सम्यग्दृष्टि जीव के शैल, शिला आदि के सदृश | तत्काल छोड़ देना चाहिये। कषाय स्थान नहीं है। मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी ही अनंत ५. यह भोज्य पदार्थ मांस सरीखा है, खून सरीखा संसार के कारण हैं। इनका बंध, उदय भी सम्यग्दृष्टि | है, साँप, गेड़आ सदश है, खाण्ड के बने हाथी-घोडा के नहीं है, अतः सप्त व्यसनों का सेवन भी नहीं है। आदि में वैसा विकल्प हो जाने पर भोजन का अंतराय वैषयिक सुख को हेय और आत्मीय सुख को उपादेय हो जाता है। श्रावक को ये अंतराय टालने चाहिये और समझता हुआ पर-वश वर-जोरी से इन्द्रिय-सम्बंधी सुखों इनका संयोग होते भोजन छोड देना चाहिए। को अनासक्त भोगता हुआ भी, पापों से लिप्त नहीं अभक्ष्य होता। तथा सम्यग्दृष्टि पाक्षिक श्रावक मूलगुणों, उत्तरगुणों श्री समंतभद्राचार्य ने रत्नकरण्डश्रावकाचार में, और के पालने में श्रद्धा रखकर पाँच परमेष्ठी की शरण लेता श्री अकलंकदेव ने राजवार्तिक में पाँच अभक्ष्य बतलाये है, पाक्षिक की दान और जिनपूजन करने में प्रधानता | ₹ । हैं- १. त्रसघात २. बहुघात ३. अनिष्ट ४. अनुपसेव्य रहती है। पूजन के पाँच भेद हैं- नित्यमह, अष्टान्हिक ५. मादक। मह आदि। मैत्री, प्रमोद, करुणाभाव, मध्यस्थता के भाव १. सघात- जिसके खाने में द्वीन्द्रिय, तीन इंद्रिय, रखता हुआ मधु-मांस-मद्य और दूधवाले फलों को छोड चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों का घात होता होय, जैसे देता है। पाक्षिक श्रावक इन आठ मूलगुणों को पालता मांस, मधु, अचार, मुरब्बा, सड़ा बुसा हुआ भोजन। है- १. मद्यत्याग २. मांसत्याग ३. मधुत्याग ४. रात्रिभोजनत्याग २. बहुघात-जिस भोजन में बहुत से स्थावरों का ५. दूधवाले फलों का त्याग ६. केवल पंच-परमेष्ठियों घात हो जैसे आलू, अरबी, मूली, गाजर, अदरख, काई की स्तुति करना ७. जीवों पर दया करना ८. पानी छान आदि। कर पीना, इन आठ मूल गुणों को धारण करता है और ३. अनिष्ट-जो वस्तु खाने में शरीरप्रकृति के सप्त व्यसनों का त्याग करता है। अचार, मुरब्बा, आसव अनुकूल नहीं पड़े, रोग हो जाये, जैसे वात-प्रकृतिवाले आदि को पाक्षिक श्रावक नहीं खा सकता। हाँ पहली मनुष्य को दही, लस्सी आदि, पित्त प्रकृतिवाले को लाल प्रतिमावाला व्यसनत्याग और मूलगुण धारण में कोई मिरच आदि। अतिचार नहीं लगने देगा। जो सम्यग्दृष्टि पाँच उदुम्बर ४. अनुपसेव्य- जो पदार्थ शुद्ध होते हुए भी देखने फल और सात व्यसनों को सर्वथा त्याग देता है, तथा | में मांस, खून पीव, टट्टी, गिडार, गेंडुआ सरीखा दीखे, इनमें अतीचार भी नहीं लगने देता, वह पहली प्रतिमावाला जैसे भीगा हुआ कतीर, तरबूज आदि। दार्शनिक श्रावक है। बारह व्रतों को निरतिचार पालता ५. मादक- जो वस्तु खाने पर नशा उत्पन्न करे, हुआ व्रती 'श्रावक' कहा जाता है। ये गृहस्थ भोजन करने जैसे भांग, धतूरा, सुलफा, गाँजा आदि। में भी अतिचार नहीं लगने देते। मुनियों के भोजन अन्तराय पिछले तीन अभक्ष्य प्रासुक होते हुये भी सज्जनों बहुत ऊँचे हैं, किन्तु श्रावकों के अन्तराय मात्र ये हैं के लिये भक्ष्य नहीं माने गये हैं। एकेन्द्रिय जीवों, वनस्पति __ 1. गीला चमड़ा, गीली हड्डी, मदिरा, मांस, खून | फल-फूल में मांस, रक्त, हड्डी नहीं हैं, अतः पकाने, 16 मई 2009 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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