Book Title: Jinabhashita 2009 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 17
________________ जिनमंदिर हैं। मध्यलोक में चार सौ अट्ठावन अकृत्रिम जिनमन्दिर हैं। ८४९७०२३ ऊर्ध्व लोक में अकृत्रिम मन्दिर हैं। इन सभी मन्दिरों में जितनी वेदियां हैं. प्रत्येक वेदी में एक-एक जिनप्रतिमा अष्ट प्रातिहार्यों से युक्त विराजमान है । इनके अतिरिक्त ज्योतिष लोक में अससंख्याते जिन मन्दिर हैं। एक-एक सूर्य, चन्द्रमा तारे में एक-एक जिन मन्दिर हैं। यों यहाँ से ७९० योजन से लेकर ९०० योजन ऊपर तक ११० योजन मोटे और स्वयंभूरमण समुद्र क्षेत्र तक लबे चौड़े विराट् क्षेत्र में असंख्याते ज्योतिष विमान हैं। उनमें प्रत्येक में एक-एक मन्दिर है तथा व्यन्तर देवों के असंख्याते स्थानों में एक-एक जिनमन्दिर है। ये सब अकृत्रिम चैत्यालय हैं। तथा भरत, ऐरावत, विदेह क्षेत्र में मनुष्यों द्वारा बनाए हुए अनेक जिनमन्दिर हैं। त्रैकालिक ये सब चैत्यालय देव माने गये हैं, इनको त्रिधा नमस्कार होवे । यह जीव अनादि से निगोद में रहा है। बड़े बड़े त्रेसठ शलाका पुरुष भी निगोद से निकले हुए हैं। निगोद से निकलकर कोई जीव व्यवहार राशि या विकलत्रय राशि में आ जाये, तो दो हजार सागर तक पृथ्वी आदि या त्रस राशि रह सकता है । इतने काल में या तो तपस्या करके मोक्ष चला जाये, नहीं तो पुनः वह जीव निगोद मे पहुँच जायेगा। वहाँ अधिक से अधिक ढाई पुद्गल परिवर्तन काल तक ठहरेगा । पुनः व्यवहार राशि में आ आयेगा। कसती ठहरे तो अन्तमुहूर्त ही निगोद छोड़कर पृथ्वीकायिक आदि हो जाये यों मनुष्य पर्याय की प्राप्ति नितान्त दुर्लभ है। | हर संसारी जीव को आहार, भय, मैथुन, परिग्रह इन चार संज्ञाओं ने पीड़ित कर रखा है। अनादिकालीन मिथ्याज्ञान के वश होकर परिग्रह संज्ञा द्वारा सताये गये ये जीव संग्रह में मूर्छित हो रहे हैं। , किसी-किसी पुण्य-शाली जीव को १ क्षयोपशमिक, २ विशुद्धि ३ देशना ४ प्रयोग्य, ५ करण लब्धियों की प्राप्ति हो जाने पर अमूल्य रत्न सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में जिन-बिम्ब दर्शन, गुरु उपदेश, दु:ख वेदना, जातिस्मरण आदि भी निमित्त कारण बन बैठते हैं। एक बार भी सम्यग्दर्शन हो जाये, तो वह अधिकाधिक अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल में मोक्ष में धर ही देता है इतने काल में अनंत जन्म मरण हो सकते हैं। किसी किसी के उपशम सम्यक्त्व और Jain Education International क्षयोपशम सम्यक्त्व असंख्यात बार तक हो जाते हैं। शान्ति, संवेग, दयाभाव और आस्तिक्य से हम स्वपर में सम्यग्दर्शन हो जाने का अनुमान लगा सकते हैं। सम्यग्दर्शन हो जाने पर संवेग, निर्वेद, स्वनिन्दा, स्वगर्हा, प्रशम, जिनभक्ति, वात्सल्य, प्रशम, जिनभक्ति, वात्सल्य, अनुकम्पा ये आठ गुण जीव में प्रगट हो जाते हैं छह महीने आठ समय में छह सौ आठ जीव निगोद से निकलते हैं और इतने ही कोई भी जीव मोक्ष में जाते हैं यह अनादि अनंत काल तक के लिये नियम है। सुदेव, शास्त्र, गुरु का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है तथा जीव आदि तत्त्वों की श्रद्धा करना अथवा शुद्ध आत्मा का अनुभवन ही सम्यग्दर्शन है। स्वपरभेद-विज्ञान के साथ स्वात्म-संवेदन भी ज्ञान- सहचारी सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व के पच्चीस दोष टालने चाहिए। आठ अंगों विपरीत शंका आदि दोष, आठ मद तीन मूढताएँ, छह अनायतन, इन पच्चीस दोषों को हटानेवाला सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेता है। सम्यग्दृष्टि जीव मरने पर नीचे के छह नरक, ज्योतिषी, भवनवासी, व्यंतर देवों और सर्व स्त्री, विकलत्रय, एक इन्द्रिय, दुष्कुल आदि निकृष्ट स्थानों में उत्पन्न नहीं होता । आजकल के मुनिराज या हम आप श्रावक या अविरत सम्यग्दृष्टि जीव भी मरकर वैमानिक स्वर्गों में ही जायेंगे। श्री पूज्य कुन्दकुन्द, समंतभद्र, पूज्यपाद, नेमिचंद आदि आचार्य भी मरकर स्वर्ग ही जा चुके हैं और वहाँ आत्म-रस गटागटी करते हुए भोग उपभोगों को भोग रहे हैं। हाँ यह अवश्य है कि जो यहाँ नियमव्रत, आखड़ी आदि चारित्र पालते हुए जीव स्वर्गों में जाते हैं, वे जीव वहाँ भोगों में विरक्त, अनासक्त रहते हैं। तीव्र आसक्त नहीं हो पाते। क्योंकि यहाँ के त्याग, व्रत, तपस्या, आखड़ी के संस्कार वहाँ भी लगे रहते हैं। शेष दीर्घ संसारी जीवों की वहाँ भोगों में तीव्र आसक्ति रहती है, अतः हम आप आदि सभी को यहाँ संसार शरीर भोगों में विरक्त रहना चाहिए, ताकि स्वर्गों में जाकर वहाँ के प्रकृष्ट भोगों को भोगते-भोगते हमारा सम्यग्दर्शन कपूर की तरह उड़ न जाय । यहाँ आजकल का सम्यग्दृष्टि मानव श्रावक, मुनि मरकर विदेह में जन्म नहीं लेगा, स्वर्ग जायेगा । कर्मभूमि के मानव या तिर्यञ्च यदि सम्यग्दृष्टि हैं, तो वे स्वर्ग ही जायेंगे। विदेह क्षेत्र में जन्म नहीं लेंगे। सम्यक्त्वं च For Private & Personal Use Only मई 2009 जिनभाषित 15 www.jainelibrary.org

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