Book Title: Jinabhashita 2009 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ व्यक्तियों के परिणामों के विषय में इस काल को, जैसे। कार्य करते हैं, अध्यापन के कार्य में उसी में संयोग की थर्मामीटर टेम्प्रेचर नापने वाला हेतु है, उसी रूप में कहा अपेक्षा से 'कारीषोऽग्निः' यह कहा, कण्डे की अग्नि है। न कि उसमें अपनी गुणवत्ता है। यदि है तो प्रश्न के | पढ़ाती है। चूँकि हमारे ज्ञान की उत्पत्ति में अर्थात अध्यापन ऊपर प्रतिप्रश्न उठता है कि पञ्चम काल है, आप लोग | कार्य में निमित्त है। 'निमित्तेऽपि' निमित्त में भी कर्तृत्व का हैं, यहाँ पर अभी मुक्ति का द्वार खुला हुआ है, मुक्ति भी | व्यवहार होता है। 'निमित्तेऽपि कर्तृत्वव्यवहार इति'। खुली है? किन्तु काल को उन्होंने कभी सक्रिय प्रभावक के रूप प्रश्न उठता है कि मुक्ति में आपके लिए काल | में स्वीकार नहीं किया और चार द्रव्यों को शुद्ध कहा बाधक है या आपके कार्य? यदि यहाँ पर काल आपको | है। इसलिए कहा कि ये चार द्रव्य हमेशा शुद्ध रहते रोक रहा है, तो यहाँ से कोई भी मुक्त नहीं होना चाहिए।। हैं, पक्षपात नहीं करते, यदि पक्षपात करेंगे तो बहुत बड़ा आचार्यों का कहना है कि अपहरण की पद्धति से यदि | घोटाला हो जायेगा। हाँ, इसलिए बंध भी जहाँ होता है, विदेह क्षेत्र आदि में जन्म लिये मुनि महाराज यहाँ पर | उसमें भी काल को लेकर जो चिन्तन किया जाता है, वह आ गये, तो वे महाराज जी यहाँ से भी मुक्ति को प्राप्त | भी गलत है। चूँकि वहाँ पर भी उसने थर्मामीटर का ही कर सकते हैं। चूँकि यहाँ का काल उनकी मुक्ति में कारण | कार्य किया है। जो चार प्रकार का बंध होता है, वह पुद्गल होगा, इससे स्पष्ट है कि काल किसी भी प्रकार से | में ही होता है। स्थितिबंध पौद्गलिक है, प्रकृतिबन्ध प्रभावक नहीं है, उपचार से आप कह सकते हो। उसमें पौद्गलिक है, प्रदेशबन्ध पौद्गलिक है, अनुभागबन्ध यह आरोप आ जाता है। इससे अधिक और कोई | पौदगलिक है। इन चारों में बंध हो रहा है। काल उसमें स्पष्टीकरण नहीं दिया जा सकता है। फिर भी यदि जिज्ञासा | कारण बनता है, जैसा कि हमने सुबह बताया था। इसके हो तो हम उसका समाधान करने के लिए तैयार हैं। अलावा कुछ नहीं है। कालद्रव्य निष्क्रिय निमित्त है वहाँ पर आत्मा में बँधते हैं। इस अपेक्षा से कह तीसरी बात यह है कि काल शुद्ध द्रव्य है। वह निष्क्रिय है। जो पदार्थ निष्क्रिय होता है, वह स्थान से | आत्मा के प्रदेशों में होते हैं, लेकिन स्थिति बंध आत्मगत स्थानान्तर नहीं जाता है। वह हठात् किसी प्रकार से काम | बंध नहीं है। आत्मा में स्थितिबंध पाकर के इसकी फल नहीं कर सकता। अब इतना अवश्य है कि सर्वार्थसिद्धि | देने की क्षमता को अनुभाग बंध कहते हैं। इसके बाद वह आदि ग्रन्थों में उपाध्याय परमेष्ठी और आलोक आदि को | रह सकता है। लेकिन बंध जो हआ है वह पौदगलिक श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में कारण माना गया है तो उसके साथ- वर्गणाओं का ही बंध है। इसलिए काल को जो बीच में साथ उन्होंने कहा है कि 'कारीषोऽग्निः' इसमें भी कर्तृत्व | लाया जाता है, वह केवल उसके परिणमन में कारणभूत को उन्होंने निमित्त अर्थात् उपचार के रूप में स्वीकार किया | है। ऐसा जो कहा जाता है, वह उपचार है। 'श्रुताराधना' (पृष्ठ १०-१७) से साभार अध्यापन के काल में जिस प्रकार उपाध्याय परमेष्ठी | क्रमशः --- है। आपके पत्र आपके द्वारा प्रेषित 'जिनभाषित' का फरवरी २००९ अंक मिला। इस अंक में डॉ० शीतलचन्द्र जैन द्वारा लिखित सम्पादकीय 'नवरात्रोत्सव जैन-परम्परा में मान्य नहीं' पढ़ा। डॉ० शीतलचन्द्र जैन ने वैदिकपरम्परा के ग्रन्थों से अनेक सन्दर्भ उल्लिखित करते हुये यह सिद्ध करने का अच्छा प्रयास किया है कि नवरात्र महोत्सव वैदिकपरम्परा से सम्बद्ध है और जैनपरम्परा से उसका कोई लेना-देना नहीं है। जो मुनि, आचार्य और ब्रह्मचारी भैया लोग नवरात्र केवल महिमामण्डित करते हैं, अपित् नवरात्र महोत्सव के नाम पर अनेक रागी-द्वेषी देवी-देवताओं का पूजन-अर्चन करते कराते हैं, उन्हें यह सम्पादकीय सद्बुद्धि प्रदान करेगा, ऐसा विश्वास है। डॉ० कमलेश कुमार जैन (आचार्य एवं अध्यक्ष) जैन-बौद्धदर्शन विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी - मई 2009 जिनभाषित १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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