Book Title: Jinabhashita 2008 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 8
________________ उस मूर्ति की तरफ जो शान्त है, जिसकी मुख मुद्रा। तीसरा सूत्र-प्रत्याख्यान- यानी प्रतिदिन अपने में अनेकों रहस्य छिपे हैं, जिसकी आँखें अब इस विश्व | दुर्गुणों का त्याग करना। हम पापों के पिण्ड हैं, हमारे की ओर देखने के लिये नहीं उठती हैं, जिसने सब अन्दर अनेक दुर्गुण हैं, हमने अनेक मूर्खतायें की है। कुछ कर लिया है, इसलिये हाथ पर हाथ रखे बैठा | So many Demerits I have. मेरे पास अनेक छोड़ने है, जिसे कहीं नहीं जाना है, जो स्थिर है, जिसमें काम | योग्य, त्यागने योग्य भाव हैं। उनके त्याग बिना हम कभी नहीं, वासना नहीं, चिन्ता नहीं, मान-अपमान का एहसास भी हीन भावों से अपनी आलोचनाओं से अपनी अव्यावनहीं, उस वीतराग, निर्विकार के चरणों में भक्ति आस्था हारिक प्रवृत्तियों से निजात नहीं पा सकते हैं। अत: अपने से भर जाना। किसी ने कहा है कि "आस्था उन शक्तियों दुर्गुणों का निष्पक्ष परीक्षण करें। आत्मनिरीक्षण करें। में से एक है जिनके द्वारा मनुष्य जीवित रहते हैं और प्रतिदिन एक बुरी आदत को नहीं करने का संकल्प इसके पूर्ण अभाव का अर्थ है धराशायी हो जाना।" | लेकर हम इस प्रत्याख्यान से अपना मनोबल बढ़ा सकते दूसरा सूत्र है- प्रार्थना, वन्दना अर्थात् बन्ध | हैं। यदि हम List बनाकर एक बुरे भाव या आदत ना- जब हम चौबीस तीर्थंकरों की थोड़ी थोड़ी स्तुति | को नोट करके निरीक्षण करेंगे तो देखेंगे हमारा विकास से सबके गुणों में एक जैसा पन ही देख लेते हैं, तो | हुआ है। लोगों ने मुझे पसन्द किया है और हम स्वयं मन होता है कि क्यों न हम एक ही महापुरुष का गुणगान | में संतुष्ट हैं। अतः प्रत्याख्यान मनोवैज्ञानिक ढंग से आत्मअच्छे ढंग से करें, बस इसी मनोवृत्ति का नाम है वन्दना। | उत्थान का सोपान है। एक ही तीर्थंकर/महापुरुष की चेतना में अपने को देखना, चतुर्थ सूत्र-प्रतिक्रमण / वैर कम- हमने कामउसी के स्तुति-सरोवर में स्नान करना और अपने को | क्रोध के वश होकर जो अतिक्रमण किया, अपने स्वरूप शुद्ध बना लेना अनेक द्वन्द्वों और उलझनों को जीते जागते | से बहुत दूर चला गया था, उस सब कायिक-वाचिकभूल जाना। यही जीवन का वह क्षण है, जब हम महसूस | मानसिक विकारों को प्रायश्चित्त करके अपने आप में कर सकते हैं कि हाँ, हमने आज जीवन जिया है। बाकी | आने का यह एक प्रक्रम है। आत्म आलोचना से, व्यर्थ का जीवन तो यूँ ही बिताया है। हर दिन हमें ऐसे ही | के अभिमान से उगी घास-फूस रूपी बुराइयों को हम जीना है ताकि चिन्ता की गठरी इकट्ठी होकर दिमाग | उसी दिन काट देते हैं, उस फसल को हम बढ़ने नहीं में ट्यूमर का रूप न ले ले। डॉ० कैरेल ने एक लेख | देते। मैं ही अपना मित्र हूँ और मैं ही अपना शत्रु हूँ। में कहा था- "प्रार्थना किसी के द्वारा उत्पन्न ऊर्जा का | अपनी बदकिस्मती का कारण भी मैं हूँ और अपने समुन्नत सबसे सशक्त रूप है। यह शक्ति उतनी ही वास्तविक | भाग्य का भी। अतः अपने में रहने के लिये लौटना है जितनी की गुरुत्वाकर्षण की शक्ति। एक डॉक्टर होने ही प्रतिक्रमण है। हमने विगत मैं जो छोटी छोटी बातों के नाते मैंने देखा कि सभी चिकित्साओं के असफल | पर बड़ी-बड़ी उलझनें बना लीं, मन में वैर-बुराई का हो जाने के बाद भी लोग प्रार्थना के शांत प्रयास द्वारा | ज़हर भर लिया वह सब भूल जाना ही सच्चा प्रतिक्रमण अपने दुःख और रोग से मुक्त हो गये। प्रार्थना रेडियम है। हमें सबको क्षमा करना है। क्षमा ही आत्मा का बल की तरह चमकदार, अपने आप उत्पन्न होनेवाली ऊर्जा | बढ़ाती है। सबसे बड़ी हार उसी की है, जो दूसरे से है। प्रार्थना में इन्सान समस्त ऊर्जा के अनंत स्रोत के | वैर रखता है। जिसका किसी से वैरभाव नहीं वही जीवित संपर्क में आकर अपनी सीमित ऊर्जा को बढ़ा सकता | जीवन जीता है। मनोवैज्ञानिकों ने शोध करके इस तथ्य है। जब हम प्रार्थना करते हैं, तो हम अपने आपको को उजागर किया है कि न्यायालय में चलनेवाले उस अविनाशी शक्ति के साथ जोड़ लेते हैं, जो पूरे | पारिवारिक, सामाजिक मामलों में अधिकतर झगड़े भाईब्रह्मांड को चलाती है। जब भी हम दिल से प्रार्थना | भाई, पति-पत्नी, पिता-पुत्र के बीच छोटी-छोटी बातों करते हुए ईश्वर को संबोधित करते हैं, हम अपनी आत्मा | से शुरू होते हैं। यदि उन छोटी-छोटी बातों को उसी और शरीर दोनों को बेहतर बना लेते हैं। ऐसा नहीं हो | समय भुला दिया जाय, माफ कर दिया जाये, तो कोर्ट सकता कि कोई भी आदमी या औरत एक पल के | कचहरी तक झगड़ा कभी न पहुँचे। महान् वह है, जो लिये भी प्रार्थना करे और उसे बेहतर परिणाम न मिले।" | बड़ी-बड़ी बातों को भी बहुत तुच्छ समझकर तनावमुक्त 6 नवम्बर 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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