Book Title: Jinabhashita 2008 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 19
________________ बढ़ाया। जब पूर्व अर्जित कर्म पक कर फल देने लगते। प्रारब्ध- जो हमने भूतकाल में किया था, वही हैं, तो उनके खट्टे-मीठे स्वाद से प्रभावित जीव नये | संस्कार रूप हमारे वर्तमान में प्रारब्ध है। जो हमारा प्रारब्ध कर्मकोष का सृजन कर लेता है। इस प्रकार यह प्रक्रिया | है, उसको भोगने की व्यवस्था ही कर्मफल-व्यवस्था है। अनादि से सतत चली आ रही है। तिस पर भी कर्म जैसा हम बोते हैं, वैसा ही काटना होता है। नीम बोकर विधाता नहीं, क्योंकि अनन्त जन्मों में बाँधे कर्मों को| किशमिश नहीं पायी जा सकती, यह सामान्य और सर्वमान्य मनिराज अपनी ध्यानाग्नि से जलाकर कुछ ही पलों में | सिद्धान्त है। गीता में कृष्ण ने भी इसी प्रकार की उद्घोषणा भस्म कर देते हैं। की है कि कर्मों के फल का निर्धारण ईश्वर या अन्य कर्मों का स्वरूप तथा प्रारब्ध- कर्मों से छुटकारा| कोई नहीं करता, अपितु स्वयं के द्वारा किये कृत्यों के पाने के लिये कर्मों के स्वरूप और उनके द्वारा फल | अनुसार ही फल प्राप्त होता है। कृत्यों का निर्णय भी देने की व्यवस्था को समझना आवश्यक है। बँधनेवाले | ईश्वर नहीं करतासभी कर्मों को मुख्य आठ नामों से जाना जाता है। अपने न कर्त्तव्यं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः नाम के अनुरूप ही प्रत्येक कर्म का कार्य है। जैसे न कर्मफल संयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥५/१४॥ ज्ञानावरण हमारे आत्मा के ज्ञानगुण को, दर्शनावरण | कर्मों की फल देने में पराधीनता- उपर्युक्त सामान्य दर्शनगुण को, अन्तराय वीर्यगुण को आच्छादित कर देते | नियम के अन्तर्गत अनेक उदाहरण आगम में पढ़ने, सुनने हैं, मोहनीय कर्म इस प्रगट सीमित ज्ञान को विकृत करने | में आते हैं। कर्मों की तीव्रता के आवेग में श्री राम का कार्य करता है। इन चारों को घातिया कर्म भी कहा | जैसे महापुरुष क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वन-वन भटकते हुए जाता है, क्योंकि ये अपने नाम के अनुरूप हमारी ज्ञानादि | पेड़पौधों से सीता का पता पूछते हैं। पाण्डव से श्रेष्ठ आत्मिक शक्तियों का घात करते हैं। शेष चार अघातिया | पुरुष वनकंदराओं में छुपते दर-दर घूमते हुए समय व्यतीत कर्मों से शरीर का आकार-प्रकार, रूप-रंग आदि मिलता | करते हैं। यह सब कर्म की उदयावस्था के चित्र हैं। है, ऊँच-नीच कुल मिलता है। सुखदुख का वेदन होता जब कर्म पक कर उदय को प्राप्त हो जाते हैं, तब है, आयु का नियमन होता है। इन्हें अपने-अपने कार्य | उनका फल भोगना ही होता है। समतापूर्वक भोगनेवाले के अनुरूप क्रमशः नाम गोत्र, वेदनीय तथा आयु कर्म | नये कर्मों के अर्जन से बच सकते हैं। हायतोबा करनेवाले कहा जाता है। नये कर्मों का सृजन-संग्रहण कर कर्मों की श्रृंखला सतत घातिया कर्मों को जीव के अनुजीवी गुणों को | बनाये रहते हैं। समतावान् पुराने कर्ज की तरह चुका प्रभावित करनेवाला भी कहते हैं। जीव के ज्ञानदर्शन आदि | कर उदय में आये कर्म को भोग कर उससे रीत जाते अनुजीवी गुण हैं। ये गुण जीव की शाश्वत निजी सम्पत्ति | हैं। जो कर्म अभी भी सत्ता में रहते हैं, उनमें परिवर्तन हैं। इन गुणों को घातिया कर्म सर्वथा नष्ट नहीं कर | किया जा सकता है। फल देने की शक्ति को घटाया पाते, परन्तु उनके प्रगटीकरण की शक्ति को सीमित कर | बढ़ाया जा सकता है। उनके फल देने के स्थितिकाल देते हैं। मोहनीय कर्म सब कर्मों का राजा कहा जाता | को घटाया बढ़ाया जा सकता है। असातावेदनीय कर्मको है। क्योंकि यह तत्त्वों की विपरीत श्रद्धा कराता है। साता वेदनीय में रूपान्तरित कर भोगा जा सकता है। इष्टोपदेश में आचार्य पूज्यपाद ने मोहनीय कर्म की तुलना | क्रोध के उदय को लोभरूप में भोगते हुए देखा जाता मादक कोदों से करते हए कहा कि जैसे इस प्रकार | है। ग्राहक सौदा खरीदने के पश्चात् दुकानदार से कहता के कोदों को खाने से जीव हिताहित को भूलकर गाफिल | है कि सेठजी आपने हमें आज लूट लिया, ऐसा सुनकर हो जाता है, उसी प्रकार मोहकर्मरूपी मद्यपान से अपने | भी दूकानदार यह नहीं कहता कि अपना माल उधार शुद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं हो पाता। दे रहा हूँ, तुझे चाय पानी पिला रहा हूँ, तेरे बाप का मोहेन संवृतं ज्ञानं, स्वभावं लभते न हि। क्या लूट लिया? क्योंकि नजर में बिके माल से मिलनेवाला मत्तः पुमान्पदार्थानां यथा मदनकोद्रवैः॥ मुनाफा दिखायी दे रहा है। क्रोध के उदय को लोभरूप | में भोगने का पुरुषार्थ करने की क्षमता जीव में है। मन नवम्बर 2008 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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