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हैं।
का परिचायक है।
डॉ० जगमोहन मिश्र, डॉ० घनश्याम व्यास, डॉ० (मिस) श्री त्रिपाठी ने कहा इस ग्रन्थ को साकार रूप | पी०सी० साल्वे, डॉ० कुसुम पटोरिया, राजेन्द्र पटोरिया, देने में मुनि श्री अभयसागर जी की महत्त्वपूर्ण भूमिका | कृष्णकुमार चौबे आदि के अतिरिक्त डॉ० गुलाबचन्द्र जैन, है। उन्होंने पुस्तक के हर पृष्ठ को बारीकी से पढ़ा, (नई दिल्ली) पत्रकार सुश्री शोभना जैन (नई दिल्ली), जाँचा है। उनकी आस्था और निष्ठा से ही यह ग्रन्थ | अभिनन्दन साँधेलीय (पाटन), आनन्द सिंघई (जबलपुर), पूर्ण हो सका है। इस ग्रन्थ में सभी समीक्षकों ने बहुत | दिलीप जैन गुड्डा (सागर), अभिषेक जैन (जबलपुर), ही उत्तम रीति से अपने विचार अभिव्यक्त किए हैं। इत्यादि के विशिष्ट सहयोग के लिए आयोजन समिति परम्परा में सन्त, गुरु और आचार्यों से बड़ा कोई नहीं | ने सभी का भावभीना सम्मान किया। है। आचार्यप्रवर ने 'मूकमाटी' महाकाव्य में शास्त्रों की | लोकार्पण समारोह के अन्त में आज के महत्त्वपूर्ण सभी मान्यताओं को मण्डित करके लोक को दिया है। | उद्बोधन में आचार्यश्री विद्यासागर जी ने कहा कि हमने इसे सभी पढ़ें और हमारे आसपास जो अन्धकार है, भिन्न-भिन्न प्रकार के शरीर को ओढ़ रखा है और उसी उसे दूर करें। समय के इस अन्धकार को दूर करने | के फलस्वरूप अपने आपको विभाजित कर रखा है। की क्षमता इन संतों में ही है। काव्य का उद्देश्य सदा | हम एक अखण्ड तत्त्व को भूलकर अनेकों में विचारों लोक मंगल रहा है। इन्हीं उद्देश्यों को यह महाकाव्य | को बाँटते जा रहे हैं। दिव्य ज्ञान के माध्यम से सन्तों
। सर्जना महान होती है और उसके अपने | ने इस रहस्य को समझा है। कोई भी संसार में छोटा त मानदण्ड होते हैं। किन्त सर्जनात्मक प्रतिभाएँ | बडा नहीं. किन्तु एक भी नहीं हैं, हैं तो अनेक, अनेक रूढ़ियों का पालन नहीं करतीं, अपितु नई परम्पराएँ बनाती रहेंगे, अनन्त रहेंगे, अजर रहेंगे, किन्तु इस विराटता का
अनभव संकचित आँखों की दृष्टि से नहीं किया जा _प्रबन्ध-सम्पादकों की ओर से सुरेश सरल, पूर्व | सकता है। ये चर्मचक्षु हमें केवल चर्म दिखाएँगे, धर्म मानद जनसम्पर्क अधिकारी, आचार्य विद्यासागर शोध | नहीं। वहाँ तक केवल आस्था के मार्ग से ही पहुँच सकते संस्थान, जबलपुर ने 'मूकमाटी-मीमांसा' ग्रंथ-प्रकाशन की | हैं। उन्होंने कहा कि आस्था के लिए घण्टों की आवश्यकता दीर्घकालिक कार्य-योजना की अथ से इति तक पर प्रकाश | नहीं। जिस चीज को हम पहचान नहीं पा रहे हैं, वह डाला। भारतीय ज्ञानपीठ के प्रकाशन अधिकारी डॉ० | है अखण्ड तत्त्व। आँखे बन्द कर, अन्य इन्द्रियों को गुलाबचन्द जैन ने 'मूकमाटी' महाकाव्य के सम्बन्ध में | कुछ देर विश्राम देकर इस अखण्ड तत्त्व का अनुभव कहा कि इसमें आचार्यश्री ने लिखा है कि माटी मूक | हम कर सकते हैं। हमारी परेशानी यह है कि हम एकान्त है, पद दलित है और आज तक दबती चली आ रही | के समर्थक नहीं हैं और अनेकान्त से छूट नहीं पाते। है। यदि कुम्भकार उस की ध्रुव, सत्ता को पहचाने, तो । आपने कहा कि ज्ञान, विज्ञान और विवेक में बहुत वह कुम्भ बन जाती है। बाद में अग्नि में उसे तपाया | अन्तर है। भिन्न-भिन्न दो वस्तुओं का नीरक्षीर-विश्लेषण जाता है तब वह पैरों द्वारा कुचली गई माटी कुम्भ बन | करना विवेक है। विवेक के उपरान्त हमें रास्ता मिल कर हमारे सिर पर आ जाती है।
जाता है। 'विवेक हो ये एक से, जीते जीव अनेक, इस कार्यक्रम के संचालक इंजी. रवि जैन, नागपुर, | अनेक दीपक जल रहे, प्रकाश देखो एक।' ने 'मूकमाटी-मीमांसा' के सम्पादकद्वय डॉ. प्रभाकर माचवे यानी जब प्रकाश की ओर देखते हैं, तो सर्वत्र (मरणोपरांत), आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी, सम्पादन-सहायक | प्रकाश नजर आता है, किन्तु ऊपर देखते हैं तो भिन्नत्रय-डॉ० आर० डी० मिश्र, डॉ० शकुन्तला चौरसिया, डॉ० भिन्न बल्ब दिखाई देते हैं। जीव अनेक होने पर भी सरला मिश्रा (सभी सागर), प्रबन्ध संपादक- सुरेश सरल, | वे एक इसलिए हैं कि प्रत्येक के पास एक जैसा ही संतोष सिंघई, नरेश दिवाकर (डी.एन.) सुभाष जैन | आत्म तत्त्व है। हम एक नहीं हैं, किन्तु एकसे हैं। अतः (खमरियावाले, सागर) के महती योगदान के लिए शाल, | हम भी प्रभु बन सकते हैं। हम भगवान् नहीं हैं, किंतु श्रीफल, सम्मानचिह्न आदि से सम्मानित किये जाने हेतु | भगवान् बन सकते हैं। इसके लिए बस प्रक्रिया अपना उनका आह्वान किया। समारोह में समुपस्थित समालोचक | ली जाय तो काम हो जाएँगा। पर हमें खुद पर ही विश्वास
नवम्बर 2008 जिनभाषित 27
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