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क्षमासागर जी की कविताएँ
अन्तर ये मन्दिर इसलिए कि हम आ सकें बाहर से अपने में भीतर ये मूर्तियाँ अनुपम सुन्दर इसलिए कि हम पा सकें कोई रूप अपने में अनुत्तर
और श्रद्धा से झुक कर गलाते जाएँ अपना मान-मद पर्त-दर-पर्त निरन्तर ताकि कम होता जाए हमारे
और प्रभु के बीच का अन्तर।
रोज हम ये दीप धूप ये गंध मानो कह रही है हमारा ही है यह आत्म-सौरभ-अगंध ये गीत-गान वन्दना के छन्द मानो कह रहे हैं हमारा ही है यह आत्म-गान अमन्द ये प्रतिमा अपलक निष्पन्द मानो कह रही है हमारा ही है यह आत्म-दर्शन अनन्त रोज हम इनके करीब आयें
और इन्हें अपने-में पायें पुलक उठे मनः प्राण।
'पगडंडी सूरज तक' से साभार
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