Book Title: Jinabhashita 2008 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 7
________________ षडावश्यक आज क्यों आवश्यक? मुनि श्री प्रणम्यसागर जी आचार्य श्री विद्यासागर जी के शिष्य व्यक्ति जब-जब दुःखी होता है, तब उसके पीछे। आज की स्थिति में वे जैनी भाई बहुत कम बचे हैं एक ही कारण होता है कि उसे किसी से जो अपेक्षा | जो इन षट्कर्मों या षड् आवश्यकों का बखूबी पालन थी उसकी पूर्ति नहीं हुई। पर वस्तु की इच्छा होना मानव | करते हों। परिणाम! मानसिक तनाव, हृदयाघात, केन्सर, की सहज प्रकृति है। अपने दैनिक जीवन में प्रत्येक | ब्रेन हेमरेज, ट्यूमर, डायिबिटीज, मोटापा, हाई ब्लड प्रेशर, गृहस्थ पहले अनेक सपने सँजोता है, अनेक योजनायें | आदि अनेक प्रकार के शरीरिक और मानसिक रोगों को बनाता है, अनेक प्रकार की महत्त्वाकांक्षायें रखता है। आमंत्रण। उन सबकी पूर्ति कदापि भी नहीं हो सकती। जितनी | विज्ञान चाहे कितना ही तकनीकी विकास कर मन की हो जाती है, उससे उसकी इच्छा शक्ति बढ़ | ले, चाहे कितना ही आसमान में उड़ाने भर ले, चाहे जाती है और पुनः उससे अधिक और अधिक पाने की, | कितनी ही सुविधाएँ जुटा ले, चाहे जितना अन्तरिक्ष में संग्रह करने की वृत्ति बलवती बनी रहती है। परिणाम | आवास बना ले पर सुख की खोज में उसे लौटना होगा, अन्ततः सब कुछ करके भी, सब कुछ पाके भी, सब | अन्ततोगत्वा अपने में लौटना होगा, अपने में सन्तुष्ट होना कुछ होके भी सन्तुष्टि, शान्ति, सुख और आनन्द से | होगा और अपने तक ही सीमित। दूर ही महसूस करता है। इच्छापूर्ति होने पर जो हमने | जो लोग धर्म से डरते हैं या धर्म करने में हिचकते इन्जॉय (enjoy) किया, वह भी कुछ देर तक। ऐसा | हैं या जो धर्म में रुचि रखते हैं उन सबके लिये यह कुछ नहीं जो हमारी अपनी चीज हो, जिस पर हमारा | छह कार्य प्रतिदिन आवश्यक रूप से करने योग्य हैं। अधिकार हो, जो स्थायी हो। ऐसा क्यों होता है? क्या | सुखी जीवन बनाने के यह छह सूत्र हैं। आपने सोचा, अपने से पूछा या किसी से इन विचारों । प्रथम सूत्र है-स्तवन, स्तुति-अर्थात् अपने से को शेयर (share) किया? नहीं, तो आइये हम चलें | ज्यादा शक्तिमान्, स्वस्थ और निर्दोष व्यक्तित्व की ओर ज्यादा तर्क किये बिना ज्यादा कुछ सोचे बिना, एक ऐसे | दृष्टिपात। इस फार्मूले को आप अपनायें, क्योंकि चिन्ता रास्ते पर जो सच्चा सुखद और शाश्वत है। प्रत्येक मानवीय मस्तिष्क का एक रोग है। इस चिन्ता . तर्क और सोच के लिये मना इसलिये है कि से बचने के लिये उस चेतना को याद करें, जो सुपर इन उलझनों में, तो हम पहले ही उलझे हैं, इसलिये | है, जिससे बढ़ के कोई नहीं। चेतना, एक ऐसी शक्ति तर्क-वितर्क से कुछ सीखने में समय बरबाद न करके | का स्रोत है, जो सबके अन्तस में विद्यमान है। स्तुति हम चलते हैं, उस पथ पर जो अब तक अछूता है | करने से हम निराशा, विषाद, अवसाद और अनिद्रा जैसी या जिसको पाकर के भी हम, उसका समुचित उपयोग | स्थितियों पर नियन्त्रण कर सकते हैं। जब हम परेशान न कर पाये। होते हैं, तो हमारी शक्ति का अपव्यय होने लगता है, ऋषि-महात्माओं ने जिस मार्ग को स्वयं अपनाया | उसे रोकें और उसे रोकने का सबसे आसान तरीका उसी पर चलने के लिये सदा गृहस्थों को भी प्रेरित | है पंचपरमेष्ठी की पूजा, स्तुति, उनके गुणों का आल्हादित किया है। कई मनीषियों का विचार है कि श्रावक के | होकर गान करना, भक्ति करना, जोर से स्तुति पढ़ना। षट्कर्म एक अर्वाचीन पद्धति है, प्राचीन परम्परा तो वही | एक-एक करके चौबीस तीर्थकरों का गुणगान, उनके है जो मुनियों की है। श्रावक भी मुनि की तरह षडावश्यकों | सहस्र नाम का उच्चारण आस्था और लगन के साथ का पालन करता था। पर धीरे-धीरे व्यस्तता बढ़ी, प्रभावना | अपने को उस महा चैतन्यवान्, शक्तिमान् सत्ता के प्रति में उतार-चढ़ाव आये तो श्रावक इन आवश्यकों से दूर | समर्पित कर देना। हम बिना आस्था के जी नहीं सकते। हो गया और आचार्यों ने सम-सामयिकता को ध्यान में | हम में से हर एक की कहीं न कहीं आस्था रहती रखते हुए देवपूजा आदि षट्कर्म का नियम बना दिया।। है। यह आस्था एक शक्ति है इस शक्ति को मोड़ दें -नवम्बर 2008 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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