Book Title: Jinabhashita 2008 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 12
________________ सिद्ध-परमेष्ठी का स्वरूप और उनकी महिमा पं० रतनलाल जी जैन, इन्दौर अनादिकाल से आज तक अनन्तानंत सिद्ध परमात्मा । परमेष्ट, परमानन्द, परमज्योति, अजर, अचर, अचल, हो गये, हो रहे हैं और होंगे। जिस प्रकार भट्ठी धमनी | अक्षय, अकृत, अकल, अकथ, अवेदी, अविकारी, असंगी, आदि कारणों की युक्तिपूर्वक योजना करने से किट्ट कालिमा | अरंगी, अभोगी, अयोगी, अरोगी, अभेदी, अखेदी, अविनाशी, आदि सब मैल निकल जाता है और शुद्ध सुवर्ण की | अक्रोधी, अमानी, अमायी, अलोभी, अरागी, अमोही, प्राप्ति हो जाती है, उसी प्रकार जो यह संसारी आत्मा | अगद, अगम, अजय, निर्मेद, निर्विकल्प, निराकार, निरंजन, ज्ञानावरणादि (घाति-अघाति) कर्मों से मलिन हो रहा है | निर्मल, निर्भय, निर्मम, निर्मोही, निर्लेप, निर्वधि, निर्विकार, उसे शुद्धोपयोग रूप भट्ठी में तपाकर जिसने घातिया- | निर्विघ्न, जगत्दयाल, जगत्प्रतिपाल, जगदाधर, जगत्केतु, अघातिया कर्मरूप कालिमा को निकाल कर, शुद्ध स्वरूप | जगदानन्द, जगदीश, जगन्नाथ, जगदीश्वर, जगद्गुरु, की प्राप्ति की है और जो लोकशिखर पर विराजमान | जगज्ज्योति, महाज्ञानी, महाध्यानी, महातेजस्वी, महानुभाव, हुआ है, जो सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व और अगुरुलघुत्व आदि | महापुरुष, महाप्रभु, महाबली, महात्मा, दीनबन्धु, दीनानाथ, गुणों से सहित है वह सिद्धात्मा है। दीनदयाल, दीनरक्षक, दीनवत्सल, ज्ञानसागर, ज्ञानगम्य, जो पूर्णरूप से अपने स्वरूप में स्थित है, कृतकृत्य | ज्ञानदीपक, ज्ञानवान्, गुणरत्नाकर, क्षमासागर, धर्मदिवाकर, हैं, जिन्होंने अपने साध्य को सिद्ध कर लिया है और | अशरण-शरण, भवभयहरण, शिवसुखकरण, सत्वानुशरण, जिनके ज्ञानावरणादि आठ कर्म नष्ट हो चुके हैं उन्हें | कुमतिकुठार, पाप-विडार, ज्ञानप्रचार, शक्ति संचार, सिद्ध कहते हैं। पतितपावन, भक्तवत्सल, सच्चिदानन्द, सदानन्द, बुद्धानन्द, जिन्होंने सुदूर भूतकाल से बाँधे हुए आठ प्रकार | ज्ञानानन्द, निजानन्द, परमानन्द, सर्वज्ञान, सर्वदर्शनादि के कर्मों को शुक्लध्यान-रूप अग्नि के द्वारा नष्ट कर उत्तमोत्तम गुणांकृत सिद्ध परमेष्ठी हैं। दिया है अथवा सिद्ध-गति को प्राप्त कर लिया है और ___ आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती द्रव्यसंग्रह में सिद्ध जो पुनर्जन्म से छूटकर पूर्णरूप से अपने को प्राप्त कर परमेष्ठी का स्वरूप कहते हैंचुके हैं ऐसे सिद्धों को निरंतर नमस्कार है। णिक्कम्मा अट्ठगुणा किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा। ये सिद्ध भगवंत अंजनसिद्ध, गुटिकासिद्ध, खड्ग- | लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादवएहिं संजुत्ता॥ (गा.१४) सिद्ध, माया-सिद्धादि से विलक्षण स्वात्मोपलब्धि-रूप जो जीव ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से रहित हैं, केवलज्ञानादि अनंतगुणों से युक्त हैं। कुन्दकुन्द स्वामी | सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से सहित हैं और अंतिम शरीर नियमसार में कहते हैं से कुछ कम हैं और उर्ध्वगमन स्वभाव से लोक के णट्ठट्ठकम्मबंधा अट्ठमहागुणसमण्णिया परमा। अग्रभाग में स्थित हैं, नित्य हैं तथा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य लोयग्गठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होंति॥ से युक्त हैं वे सिद्ध परमात्मा हैं और भी, (गा. ७२) णट्ठट्ठकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा। जिन्होंने अष्टकर्मों के बन्धनों को नाश कर दिया पुरिसायारो अप्या सिद्धो झाएह लोयसिहरत्थो॥ है, जो आठ महागुणों से सहित हैं तथा लोकाग्र में स्थित (गा. ५१) नित्य और अविनाशी हैं वे सिद्ध हैं। तथा जन्म-मरण ___आठ कर्मों तथा पाँच शरीरों से रहित, लोक-अलोक से रहित, उत्कृष्ट, अष्टकर्मों से दूरवर्ती, शुद्ध ज्ञान, दर्शन, को जानने व देखनेवाले, पुरुषाकार से लोक के शिखर सुख, वीर्य चार स्वभावधारी, क्षयरहित, अविनाशी तथा | | पर स्थित आत्मा सिद्ध-परमात्मा हैं, उनका ध्यान करो। छेदरहित-तत्त्व ही सिद्ध परमात्मा हैं। सिद्ध परमेष्ठी आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती गोम्मटसार अनन्तज्ञानी हैं, कृतकृत्य हैं, देवाधिदेव हैं, इन्द्र-चक्रवर्ती- | जीवकाण्ड में कहते हैंतीर्थंकर आदि समस्त महापुरुषों के द्वारा वंदनीय परमपुरुष, | अट्ठविहकम्मवियला, सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा। परमब्रह्म, परमदेव, परमेश्वर, परमकृपालु, परमदयालु | अट्ठगुणा किदकिच्चा, लोयग्गणिवासिणो सिद्धा॥ (गा.६८) 10 नवम्बर 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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