Book Title: Jinabhashita 2008 11
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 13
________________ जो ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों से रहित हैं, अनन्त । ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मों से मुक्त हुए, । सुखरूपी अमृत के अनुभव करनेवाले शान्तिमय हैं, | आठ गुणों से सम्पन्न अष्टम पृथ्वी (ईषत्प्राग्भार) अर्थात् मिथ्यादर्शनादि भावकर्मरूपी अञ्जन से रहित हैं, सम्यक्त्व, | मोक्षभूमि में स्थित और अपने कार्य को जिन्होंने समाप्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य, अव्याबाध, अवगाहन, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघु | कर दिया है उन अनुपम सिद्धों को मैं नित्य नमस्कार ये आठ गुणों से सहित हैं, कृतकृत्य हैं- अर्थात् जिन्हें | करता हूँ। कोई कार्य करना बाकी नहीं रहा है, लोक के अग्रभाग जिन्होंने ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण कर्म की में निवास करनेवाले हैं वे सिद्ध परमात्मा हैं। और भी, | नौ, वेदनीय कर्म की दो, मोहनीय कर्म की अट्ठाईस, जह कंचणग्गिगयं, मुंचइ किट्टेण कालियाए य। आयु कर्म की चार, नाम कर्म की तिरानवे, गोत्रकर्म तह कायबंधमुक्का, अकाइया झाणजोगेण॥ | की दो और अंतराय की पाँच इस प्रकार आठों कर्मों (गा.२०३) | की १४८ प्रकृतियों को नष्ट कर दिया है वे सिद्ध परमात्मा जिस प्रकार सोलह ताव के द्वारा तपाए हुए सुवर्ण | होते हैं। उन सिद्धों ने जो सुख प्राप्त कर लिया वह में बाह्य किट्टिका और अभ्यन्तर कालिमा इन दोनों ही | अतिशय अर्थात् संसार अवस्था में प्राप्त सुखों से बहुत प्रकार के मल का बिल्कुल अभाव हो जाने पर, फिर | अधिक है, अव्याबाध बाधा से रहित है अर्थात् उस किसी दूसरे मल का सम्बन्ध नहीं होता उसी प्रकार | सुख की अनुभूति में कभी बाधा नहीं आती। अनन्त महाव्रत और धर्मध्यानादि से सुसंस्कृत एवम् सुतप्त आत्मा | है-उसका कभी अन्त नहीं होता, अनुपम है- उसकी में से एक बार शुक्लध्यान रूपी अग्नि के द्वारा बाह्य | तुलना संसार के किसी भी सुख से नहीं की जा सकती। काय और अन्तरंग मलकर्म के सम्बन्ध के सर्वथा छूट | उत्कृष्ट है, इन्द्रिय विषयों से अतीत है। सिद्ध पद प्राप्त जाने पर फिर उनका बन्ध नहीं होता और वे सदा के करने से पहले ऐसा सख कभी प्राप्त नहीं हआ और लिए काय और कर्म से रहित होकर सिद्ध हो जाते हैं। प्राप्त हो जाने के बाद वह कभी छूटता नहीं, सदा बना आचार्य कन्दकन्दस्वामी नियमसार में कहते हैं- | रहता है। वे परमात्मा मैल से रहित हैं। शरीर से, इन्द्रियों णकम्मबंधा अट्टमहागुणसमण्णिया परमा। से रहित हैं। केवल ज्ञानमय हैं, विशुद्ध हैं, परमपद में लोयग्गठिदा णिच्चा, सिद्धा ते एरिसा होति॥ | स्थित हैं, परमजिन हैं, मोक्ष को देनेवाले हैं। वे अविनाशी (गा. ७२) | हैं, नित्य हैं, अचल हैं और आलम्बन रहित हैं। आगे परिपूर्णरूप से अन्तर्मुखाकार ध्यान और ध्येय के | गमन नहीं करते। नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द कहते विकल्प से रहित जो निश्चय परम शुक्लध्यान है उस | हैं किध्यान के बल से आठ कर्मों के बन्धसमूह को जिन्होंने | णिव्वाणमेव सिद्धा, सिद्धा णिव्वाणमिदि समुद्दिट्टा। नष्ट कर दिया है जो क्षायिक सम्यक्त्व, अनंतज्ञान, कम्मविमुक्को अप्पा, गच्छइ लोयग्गपज्जतं॥ अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व (गा. १८३) और अव्याबाधत्व इन आठ गुणों की पुष्टि से सन्तुष्ट निर्वाण (अवस्था) ही सिद्ध (अवस्था) है और हैं। तीन तत्त्व के स्वरूपों में विशिष्ट गुणों के आधारभूत | सिद्धावस्था ही निर्वाण है। अर्थात् निर्वाण और निर्वाणहोने से जो परम हैं अर्थात् बहिस्तत्त्व, अन्तस्तत्त्व और | | प्राप्त जीव में कोई भेद नहीं है। आत्मा कर्मों से मुक्त परमात्म तत्त्व स्वरूप हैं। तीन लोक के शिखर से ऊपर | होती है, वह मुक्त होते ही ऊपर लोक के अग्रभाग तक गति-हेतुरूप धर्मास्तिकाय का अभाव होने से लोक के | जाती है जहाँ न सांसारिक सुख, न दुख, न पीड़ा, न अग्रभाग (तनुवातवलय) में विराजमान हैं, व्यवहारनय | बाधा, न जन्म, न मरण, न कर्म है, न नोकर्म है, न से अभूतपूर्व पर्याय से प्रच्युत न होने से जो नित्य हैं, | चिन्ता है, न आर्त और रौद्रध्यान है तथा धर्म्यध्यान और अविनाशी हैं ऐसे वे भगवान् सिद्धपरमेष्ठी होते हैं। शुक्लध्यान भी नहीं है वही निर्वाण है। ___ 'सिद्धभक्ति' में कहा गया है आचार्यदेव गो. जीवकांड में गुणस्थानातीत सिद्धों अट्ठविहकम्ममुक्के अट्ठगुणड्ढे अणोवमे सिद्धे। | का वर्णन करते हैंअट्ठम पुढविणिविट्ठे णिट्ठियकज्जे य वंदिमों णिच्चं॥। सिद्धों का स्वरूप कथन करने से अन्यमतावलम्बी नवम्बर 2008 जिनभाषित || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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