Book Title: Jinabhashita 2007 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 9
________________ अहिंसा धर्म की महिमा यह तो सर्वविदित है कि जैनधर्म में अहिंसा का स्थान सर्वोपरि है। इस अवसर्पिणी काल में भगवान् ऋषभदेव ने जिस अहिंसा धर्म का उपदेश दिया था उससे विश्व का कितना उपकार हुआ है, यह बताने के लिए शब्द नहीं मिलते। लाखों करोड़ों निरीह जीवों की रक्षा हुई, खून की नदियों का बहना रुका। भगवान् ऋषभदेव की इस अहिंसा का प्रभाव अन्य धर्मों पर पड़ा यह भी इतना ही सत्य है। प्रस्तुत लेख में हम यही देखेंगे कि अन्य धर्मों पर अहिंसा का प्रभाव कैसे पड़ा है। एक प्रसंग आता है महाभारत का जिसमें अहिंसा धर्म की महिमा गायी गई है। प्रसंग है शान्ति पर्व, अध्याय 265 का भीष्म पितामह धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं- युधिष्ठिर ! प्राणियों पर दया करना चाहिए ऐसा राजा विचख्मु ने प्रजा पर अनुकम्पा से कहा था, जिसका उल्लेख विद्वान् करते हैं, मैं उसे कहता हूँ, सुनो ! गवालम्भनयज्ञ के समय कटे हुए गले से युक्त एक बैल को देखकर यज्ञशाला में रहने वाली गायें बहुत ही विलाप कर रही थी जिसे राजा विचख्मु ने देखा । प्राणी हिंसा चलते समय 'स्वस्ति गोभ्यो स्तु लोकेषु' लोक में ' रहने वाली सभी गायों का मंगल हो, ऐसा सुभाशीष राजा ने कल्पित किया। साथ में राजा ने अपने द्वारा उच्चारित इस सुभाशीष का विवरण भी बनाया। "जो धर्म की मर्यादा से भ्रष्ट हुए हैं, जो मूर्ख हैं, नास्तिक हैं, आत्मा के विषय में संदेह युक्त हैं, जो अप्रसिद्ध हैं- मात्र वे ही हिंसा का समर्थन करते हैं ॥ 4 ॥ धर्मात्मा मनु ने सभी कर्मों में अहिंसा का ही प्रतिपादन किया है। लोग अपने आशाओं की पूर्ति के लिए बहिर्वेदी में पशुओं की बलि देते हैं ॥ 5 ॥ इसलिए विद्वानों को वैदिक प्रमाणों के द्वारा सूक्ष्म धर्म का निर्णय करना चाहिए। सभी प्राणियों को सभी धर्मों में अहिंसा धर्म ही श्रेष्ठ है ऐसा विद्वानों का अभिप्राय है ॥ 6 ॥ उपवास करते हुए कठिन व्रतों का आचरण करना चाहिए । सकाम कर्मों को अनाचार कर्म समझकर उनमें प्रवृत्त नहीं होना चाहिए। क्षुद्र लोग ही फलेच्छा से कर्म करते हैं ॥ 7 ॥ जो मनुष्य वृक्षों को नहीं काता, मांस नहीं खाता। यज्ञ के यूपस्तम्भ के लिए वृक्षों को काटता है । यज्ञांग के रूप में उपयोग किये हुये मांस को प्रसाद के रूप में खाता है ऐसा यह वाद समीचीन नहीं दिखता, क्योंकि इसप्रकार के हिंसाधर्म की कोई भी प्रशंसा नहीं करता ॥ 8॥ सुरा, मछली, शहद, मांसमय, कृसरौदन? इन सबको धूर्तों 119 11 प्रवर्तित किया है। वेदों में इनको नहीं बताया गया उन धूर्तों ने अभिमान, लोभ, मोह इनके वशीभूत होकर लोलुपता के लिए सुरा, मस्त्य, मधु, मांस को कल्पित कर लिया ॥ 10 ॥ पूर्वार्द्ध | इसके बाद युधिष्ठिर प्रश्न करते हैं पितामह ! कट्टर Jain Education International अहिंसावादी के शरीर और विपत्ति दोनों परस्पर संघर्ष करते हैं । चोर जब घर में प्रवेश करता है तब उसको पकड़कर सजा देना चाहिए ऐसा मन कहता है। लेकिन दूसरे व्यक्ति की हिंसा होने के कारण चोर को नहीं पकड़ना चाहिए ऐसा कट्टर अहिंसावादी का मन ही पुनः कहता है। इसप्रकार आपत्काल में शरीर का शोषण होता है। उससे बचकर आपत्ति का नाश करना चाहिए ऐसा शरीर कहता है। आपत्ति का निवारण करने के लिए हिंसा होती है। भूमि में रहनेवाले कृमि कीटादिकों की हिंसा होगी इस भय से कृषि को ही नहीं करें तो, काम नहीं करनेवाले का जीवन निर्वाह किस प्रकार होगा ?" मुनि श्री नमिसागर जी संघ- पू. आ. श्री विद्यासागर जी महाराज इसके उत्तर में भीष्म जी कहते हैं- "युधिष्ठिर ! हिंसा नहीं करना चाहिए ऐसा कहने पर कृषि को ही छोड़ देना चाहिए ऐसा नहीं । अहिंसाधर्म का परिपालन करते समय भी शरीर क्षीण न हो, अकाल मृत्यु के वश न हो इसप्रकार कर्मों को करना चाहिए। जिसके पास शरीर सामर्थ्य है वही धर्म का आचरण कर सकता है।" अब पाठक समझ गये होंगे की अहिंसाधर्म का महत्त्व कितना है ? साथ ही साथ जैनों को गर्व होना चाहिए कि अन्य धर्मों में जो अहिंसा का वर्णन है वह भगवान् 'ऋषभदेव' जो कि जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं का ही प्रभाव है। अहिंसा के महत्त्व को वे देर से समझे लेकिन समझ गये। महाभारत के इस प्रसंग से यह स्पष्ट हो जाता है कि जो व्यक्ति धर्म की मर्यादा से भ्रष्ट है, मूर्ख है, नास्तिक आदिक है वही हिंसा का समर्थन करता है। इससे एक प्रश्न का उठना स्वाभाविक है कि वेदों में अश्वमेध गोमेधादि यज्ञों का प्रतिपादन क्यों किया गया है? इसका उत्तर यह है कि वेद एक सांकेतिक हैं, उनको इतिहास के रूप में पढ़ने से यह गड़बड़ी हुई है। इसके लिए मैं एक ही प्रमाण देना चाहता हूँ। जिसे चंपतराय जैन साहब ने अपनी पुस्तक 'द की आप नॉलेज' में उल्लेख किया है। डियुसन साहब की पुस्तक 'सिस्टम ऑफ द वेदानां' जिसका अंग्रेजी अनुवाद चार्ल्स जॉनस्टन ने किया है, जिसमें लिखा है'Here the universe takes the place of the horse to be offered, perhaps with the thought in the background, that the ascetic is to renounce the world. (cf. Brit 3, 5, 1, 4, 4,22) बृहदारण्यक के इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि अश्व (घोड़ा) की बलि देने का अर्थ है कि विश्व का त्याग करना (परिग्रह का त्याग करना) है, न कि जीवित घोड़ों की बलि देना । इसप्रकार हम समझ सकते हैं कि वेदों का अर्थ करने में कैसी गलती हुई है। ऐसे अनेक उल्लेख हम इस पुस्तक 'में देख सकते हैं, जो बलि के सच्चे अर्थ को प्रकट करते हैं। 1 For Private & Personal Use Only .... सितम्बर 2007 जिनभाषित 7 www.jainelibrary.org

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